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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 125/ मन्त्र 1
वन॑स्पते वी॒ड्वङ्गो॒ हि भू॒या अ॒स्मत्स॑खा प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑। गोभिः॒ संन॑द्धो असि वी॒डय॑स्वास्था॒ता ते॑ जयतु॒ जेत्वा॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठवन॑स्पते । वी॒डुऽअ॑ङ्ग: । हि । भू॒या: । अ॒स्मत्ऽस॑खा । प्र॒ऽतर॑ण: । सु॒ऽवीर॑: । गोभि॑: । सम्ऽन॑ध्द: । अ॒सि॒ । वी॒डय॑स्व । आ॒ऽस्था॒ता । ते॒ । ज॒य॒तु॒ । जेत्वा॑नि ॥१२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पते वीड्वङ्गो हि भूया अस्मत्सखा प्रतरणः सुवीरः। गोभिः संनद्धो असि वीडयस्वास्थाता ते जयतु जेत्वानि ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पते । वीडुऽअङ्ग: । हि । भूया: । अस्मत्ऽसखा । प्रऽतरण: । सुऽवीर: । गोभि: । सम्ऽनध्द: । असि । वीडयस्व । आऽस्थाता । ते । जयतु । जेत्वानि ॥१२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 125; मन्त्र » 1
विषय - युद्ध का उपकरण रथ और देह।
भावार्थ -
युद्ध के उपकरण रथ का वर्णन करते हैं। हे (वनस्पते) बनस्पति, काष्ठ के बने रथ ! तू (वीड्वङ्गः) दृढ़ अंगों वाला (हि) ही (भूयाः) रह। तू (अस्मत्सखा) हमारा मित्र (सुवीरः) उत्तम बलशाली वीरों से युक्त होकर युद्ध में (प्र तरणः) पार पहुँचाने वाला है। तू (गोभिः) गो-चर्म को बनी रस्सियों से (संनद्धः) खूब अच्छी प्रकार जकड़ा हुआ (असे) है तू (वीडयस्व) पर्याप्त रूप से हमें भी दृढ़ कर और (ते आस्थाता) तुझ पर चढ़ने वाला (जेत्वानि जयतु) विजय प्राप्त करे।
आत्मा, देह और ईश्वर भी रथ कहाता है। जैसे—तं वा एतं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते, रसतमं ह वै तद् रथन्तरं॥ श०। ६। २। ३६॥ वैश्वानरो वै देवतया रथः। तै० २। २। ५४॥ गौ० पू० २। २१॥
अध्यात्म पक्ष में—हे (वनस्पते) वन संभजनीय, सेवनीय, पदार्थों के स्वामिन् देह ! तू (वीड्वङ्गोः हि भूयाः) दृढ़ांग हो (अस्मत्-सखा) हमारा मित्रवत् उपकारी बन, (सुवीरः) शुभ वीर्यवान् होकर (प्रतरणः) इस संसार सागर को पार कर सकने का साधन बन। तू इस संसार में (गोभिः) इन्द्रियों से (संनद्धः) संबद्ध है, तू (वीडयस्व) समस्त पराक्रम कर, (ते आस्थाता) तेरा अधिष्ठाता, इन्द्र, आत्मा जेत्वानि जयतु) जीतने योग्य पदार्थों पर वश करे॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः वनस्पतिर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ, २ जगती। तृचं सूक्तम्॥
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