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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 131/ मन्त्र 1
नि शी॑र्ष॒तो नि प॑त्त॒त आ॒ध्यो॒ नि ति॑रामि ते। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठनि । शी॒र्ष॒त: । नि ।प॒त्त॒त: । आ॒ऽध्य᳡: । नि । ति॒रा॒मि॒। ते॒ । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठनि । शीर्षत: । नि ।पत्तत: । आऽध्य: । नि । तिरामि। ते । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 131; मन्त्र » 1
विषय - प्रेमियों का परस्पर स्मरण और चिन्तन।
भावार्थ -
मैं तेरा प्रेमी व्यक्ति अर्थात् पति या पत्नी (नि शीर्षतः) शिर से लेकर (नि पत्ततः) पैरों तक (ते) तेरे शरीर में (आध्यः) प्रेम से उत्पन्न होनेवाली मानसी व्यथाओं के (नि तिमि) उत्पन्न करने का कारण बनूं। हे (देवाः प्रहिणुत स्मरम् माम् अनुशोचतु) पुरुषो ! प्रियतम दूरस्थ व्यक्ति में प्रेमपूर्वक स्मरण करने के भाव को जागृत करो, जिससे वह मुझे स्मरण करके मेरे लिये वियोग दुःख अनुभव करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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