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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्र देवता - वज्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त

    यद॒श्नामि॒ बलं॑ कुर्व इ॒त्थं वज्र॒मा द॑दे। स्क॒न्धान॒मुष्य॑ शा॒तय॑न्वृ॒त्रस्ये॑व॒ शची॒पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒श्नामि॑ । बल॑म् । कु॒र्वे॒ । इ॒त्थम् । वज्र॑म् । आ । द॒दे॒ । स्क॒न्धान् । अ॒मुष्य॑ । शा॒तय॑न् । वृ॒त्रस्य॑ऽइव । शची॒ऽपति॑: ॥१३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदश्नामि बलं कुर्व इत्थं वज्रमा ददे। स्कन्धानमुष्य शातयन्वृत्रस्येव शचीपतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अश्नामि । बलम् । कुर्वे । इत्थम् । वज्रम् । आ । ददे । स्कन्धान् । अमुष्य । शातयन् । वृत्रस्यऽइव । शचीऽपति: ॥१३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मैं (यद् अश्नामि) जो खाऊं उससे (बलं कुर्वे) अपना बल सम्पादन करूं। और तब (शचीपतिः) शक्ति का स्वामी सूर्य जिस प्रकार (वृत्रस्य इव) वृत्र, मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है आत्मा अज्ञान का नाश करता है उसी प्रकार मैं (अमुष्य) उस अमुक शत्रु के (स्कन्धान्) कन्धों या स्कन्ध अर्थात् सेना- दलों को (शातयन्) विनाश करता हुआ (इत्थं वज्रम् आददे) इस प्रकार से वज्र = तलवार या दण्ड को या पापों से मनुष्यों को बचाने वाले शासनदण्ड को (आ ददे) उठाऊं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। मन्त्रोक्ता वज्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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