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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 108/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
यो न॑स्ता॒यद्दिप्स॑ति॒ यो न॑ आ॒विः स्वो वि॒द्वानर॑णो वा नो अग्ने। प्र॒तीच्ये॒त्वर॑णी द॒त्वती॒ तान्मैषा॑मग्ने॒ वास्तु॑ भू॒न्मो अप॑त्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । ता॒यत् । दिप्स॑ति । य: । न॒: । आ॒वि: । स्व: । वि॒द्वान् । अर॑ण: । वा॒ । न॒: । अ॒ग्ने॒ । प्र॒तीची॑ । ए॒तु॒ । अर॑णी । द॒त्वती॑ । तान् । मा । ए॒षा॒म् । अ॒ग्ने॒ । वास्तु॑ । भू॒त् । मो इति॑ । अप॑त्यम् ॥११३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नस्तायद्दिप्सति यो न आविः स्वो विद्वानरणो वा नो अग्ने। प्रतीच्येत्वरणी दत्वती तान्मैषामग्ने वास्तु भून्मो अपत्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । तायत् । दिप्सति । य: । न: । आवि: । स्व: । विद्वान् । अरण: । वा । न: । अग्ने । प्रतीची । एतु । अरणी । दत्वती । तान् । मा । एषाम् । अग्ने । वास्तु । भूत् । मो इति । अपत्यम् ॥११३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 108; मन्त्र » 1
विषय - हत्याकारी अपराधियों को दण्ड।
भावार्थ -
(यः) जो (नः) हममें से (तायत्) छुपकर चोर के समान (दिप्सति) दूसरे की हत्या करना चाहता है, और (यः) जो (नः) हममें से कोई (आविः) प्रत्यक्ष रूपमें दूसरे को मारना चाहता है वह (स्वः) चाहे अपना बन्धु हो या (विद्वान्) ज्ञानवान् भारी पंडित हो, यदि वह (नः) हममें से, हमारे जनसमुदाय के लिए (अरणः) दुःखदायी है तो (दत्वती) दांतोंवाली (अरणिः*) कष्टदायिनी, उसे खा जाने वाली पीड़ा या पीड़ाकर यन्त्रणा (प्रतीची) जो उसकी इच्छा के प्रतिकूल हो वह (तान्) उनको (एतु) अवश्य प्राप्त हो। हे अग्ने ! शत्रु संतापक राजन् ! (एषा) ऐसे हत्याकारी षडयन्त्री घातक लोगों के पास (वास्तु) निवास के लिये अपना स्वतन्त्र घर (मा भूत्) न हो प्रत्युत वे सरकार की कैद में रहें और (मा उ अपत्यम् भूत्) ऐसे नीच हिंसक लोगों का कोई सन्तान भी न हो। यदि ऐसे पुरुषों की सन्तान उनकी ही दायभागिनी समझी जायेगी तो उनका हत्या द्वारा धन प्राप्त करने का पेशा परम्परा से फैलेगा। इसलिये ऐसा हत्याकारी पुरुष सन्तान का पिता होने का हकदार भी नहीं। और न वे पुत्र अपने हत्याकारी पिता के हत्या से प्राप्त धन के उत्तराधिकारी बन सकते हैं।
टिप्पणी -
*अरणि = आर्तिकारिणी, कष्टदायिनी बेडियां। सम्भवतः लोहे की शृंखला को अरणि कहा जाता हो और अंग्रेजी का lron = आयरन शब्द इसी का अपभ्रंश हो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥
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