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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - शौनकः
देवता - सभा, समितिः, पितरगणः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
स॒भा च॑ मा॒ समि॑तिश्चावतां प्र॒जाप॑तेर्दुहि॒तरौ॑ संविदा॒ने। येना॑ सं॒गच्छा॒ उप॑ मा॒ स शि॑क्षा॒च्चारु॑ वदानि पितरः॒ संग॑तेषु ॥
स्वर सहित पद पाठस॒भा । च॒ । मा॒ । सम्ऽइ॑ति: । च॒ । अ॒व॒ता॒म् । प्र॒जाऽप॑ते: । दु॒हि॒तरौ॑ । सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने । येन॑ । स॒म्ऽगच्छै॑ ।उप॑ । मा॒ । स: । शि॒क्षा॒त् । चारु॑ । व॒दा॒नि॒ । पि॒त॒र॒: । सम्ऽग॑तेषु ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः संगतेषु ॥
स्वर रहित पद पाठसभा । च । मा । सम्ऽइति: । च । अवताम् । प्रजाऽपते: । दुहितरौ । संविदाने इति सम्ऽविदाने । येन । सम्ऽगच्छै ।उप । मा । स: । शिक्षात् । चारु । वदानि । पितर: । सम्ऽगतेषु ॥१३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
विषय - सभा समिति बनाने का उपदेश।
भावार्थ -
(सभा च) सभा जिसमें सब समान हैसियत या पदके होकर विराजें और (समितिः च) जिसमें समस्त प्रजाएं एकत्र हों अर्थात् एक पदाधिकारियों की सभा दूसरी प्रजाओं के प्रतिनिधियों की समिति ये दोनों (प्रजापतेः दुहितरौ) प्रजा के स्वामी राजा की दुहिता कन्या के समान हितकारिणी होकर भी अपना हित स्वयं निर्णय करती और अपना लाभ सम्पत्ति, भोग यश आदि प्रजापति राजा को ही देती हैं। वे दोनों (सं विदाने) परस्पर ऐकमत्य करके (मा) मुझ राजा का (अवतां) पालन करें। और हे सभासद् विद्वान् पुरुषो ! मैं (येन) आप लोगों में से जिस किसी से (सम् गच्छै) मिलकर वार्तालाप करूं या सलाह लूं (सः) वही (मा) मुझको (उप शिक्षात्) मेरे समीप आकर मुझे अपने विभाग का ज्ञान प्राप्त कराए, मुझे सिखावे अथवा मुझे मेरे राज्यकार्य करने में समर्थ करे, मुझे सहायता दे। हे (पितरः) विद्वान् पुरुषो ! राष्ट्र के पालन करने वालो ! आप लोग ही वास्तव में राष्ट्र के पिता हों, आप (संगतेषु) जब एकत्र हों तो आप लोगों के बीच में (चारु वदानि) मैं उत्तम प्रकार से अपना अभिप्राय प्रकट करूं। आप मित्रभाव से मेरे संग रहें, कुटिल भाव से वर्ताव न करें। राजसभा और प्रजा की प्रतिनिधि सभा दोनों के सदस्य राजा को राजकार्य में सहायता करें। उसे राज्य संचालन में समर्थ करें। उसे मार्ग दिखलायें और राजा अपने सब अभिप्राय स्पष्ट रूप से प्रथम समिति अधिकारी सभा (State council) और प्रजा प्रतिनिधि सभा (Legislative) के समक्ष रक्खे और ये सब उस पर विचार करलें कि राजा के मन्तव्य किस अंश तक प्रजा के लाभकारी और क्रियात्मक हो सकते हैं, उनसे क्या हानि लाभ सम्भव है इत्यादि।
टिप्पणी -
मनु प्रोक्त त्र्यवरा परिषत् आदि का मूल यही सभा है। इस स्थल पर मनु की उस व्यवस्था को देख लेना चाहिए। सभाओं और समितियों का वर्णन प्राचीन काल के साहित्य में बहुत है। प्रजाओं के विवाद निर्णयार्थ भी सभा, समिति की रचना आवश्यक है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शौनक ऋषिः। सभा देवता। १, २ सरस्वती। ३ इन्द्रः। ४ मन्त्रोक्तं मनो देवता। अनुष्टुप्छन्दः। चतृर्ऋचं सूक्तम्।
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