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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अथ॑र्वाणं पि॒तरं॑ दे॒वब॑न्धुं मा॒तुर्गर्भं॑ पि॒तुरसुं॒ युवा॑नम्। य इ॒मं य॒ज्ञं मन॑सा चि॒केत॒ प्र णो॑ वोच॒स्तमि॒हेह ब्र॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑र्वाणम् । पि॒तर॑म् । दे॒वऽब॑न्धुम् । मा॒तु: । गर्भ॑म् । पि॒तु: । असु॑म् । युवा॑नम् । य: । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । मन॑सा । चि॒केत॑ ।प्र । न॒: । वो॒च॒: । तम् । इ॒ह । इ॒ह । ब्र॒व॒: ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथर्वाणं पितरं देवबन्धुं मातुर्गर्भं पितुरसुं युवानम्। य इमं यज्ञं मनसा चिकेत प्र णो वोचस्तमिहेह ब्रवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथर्वाणम् । पितरम् । देवऽबन्धुम् । मातु: । गर्भम् । पितु: । असुम् । युवानम् । य: । इमम् । यज्ञम् । मनसा । चिकेत ।प्र । न: । वोच: । तम् । इह । इह । ब्रव: ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1

    भावार्थ -

    (यः) जो विद्वान् (इमं) इस (यज्ञम्) यज्ञ = आत्मा को (मनसा) अपने मानस विचार द्वारा (अथर्वाणम्) अथर्वा-कूटस्थ, नित्य, (पितरम्) सब इन्द्रियों और प्राण सामर्थ्यों का पालक, (देवबन्धुम्) देव अर्थात् परमेश्वर का बन्धु अथवा देव अर्थात् इन्द्रियों का मूल कारण, (मातुः-गर्भम्) माता के पेट में गर्भ रूप से प्रकट होने वाला, और (पितुः) उत्पादक, बीजप्रद पिता के जीवन का अंश, (असुम्) प्राणस्वरूप, (युवानं) सदा नव, अजर अमर या देह इन्द्रिय और उसके सामर्थ्य को मिलाने वाला या गर्भ में जो डिम्ब से स्वयं मिथुनित होने वाला इस रूपसे (चिकेत) पूर्णतया जान लेता है ऐसा विद्वान् (नः) हमें भी (प्र वोचः) उस आत्मा का उपदेश करे (तम्) उसको (इह इह) इस इस देह में अर्थात् प्रत्येक देह में अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को (ब्रवः) बतलावे। इस शरीर के आत्मा के साथ साथ ब्रह्माण्डव्यापी महान् आत्मा का वर्णन भी समझना चाहिए। इस की व्याख्या अथर्ववेदीय शिरउपनिषत् में देखनी चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    ब्रह्मवर्चस्कामोऽथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता | त्रिष्टुप्। एकर्च सूक्तम्॥

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