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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आत्मा छन्दः - पराशक्वरी विराड्गर्भा जगती सूक्तम् - एको विभुः सूक्त

    स॒मेत॒ विश्वे॒ वच॑सा॒ पतिं॑ दि॒व एको॑ वि॒भूरति॑थि॒र्जना॑नाम्। स पू॒र्व्यो नूत॑नमा॒विवा॑स॒त्तं व॑र्त॒निरनु॑ वावृत॒ एक॒मित्पु॒रु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽएत॑ । विश्वे॑ । वच॑सा । पति॑म् । दि॒व: । एक॑: । वि॒ऽभू: । अति॑थि: । जना॑नाम् । स: । पू॒र्व्य: । नूत॑नम् । आ॒ऽविवा॑सत् । तम् । व॒र्त॒नि॒: । अनु॑ । व॒वृ॒ते॒ । एक॑म् । इत् । पु॒रु ॥२२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समेत विश्वे वचसा पतिं दिव एको विभूरतिथिर्जनानाम्। स पूर्व्यो नूतनमाविवासत्तं वर्तनिरनु वावृत एकमित्पुरु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽएत । विश्वे । वचसा । पतिम् । दिव: । एक: । विऽभू: । अतिथि: । जनानाम् । स: । पूर्व्य: । नूतनम् । आऽविवासत् । तम् । वर्तनि: । अनु । ववृते । एकम् । इत् । पुरु ॥२२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 21; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे लोगो ! (विश्वे) आप सब लोग (दिवः) समस्त प्रकाश और इस महान् द्युलोक के (पतिं) परिपालक उस प्रभु के पास (वचसा) वाणी द्वारा (सम्-एत) एकत्र होकर शरण में आओ। वह (एकः) एक है, (जनानाम्) समस्त जीवों और प्राणियों में (अतिथिः) व्यापक और तुम्हारा अतिथि के समान पूजनीय है। (सः) वह सबसे (पृर्व्यः) पूर्व विद्यमान, सबका पितामह, उत्पादक, पुराण, आदि कारण, (नूतनम्) अपने से उत्पन्न कार्यरूप जगत् को (आ विवासत्) प्रकट करता और उसको व्याप्त करता है, (तम्) उस (एकम्) एकमात्र आदिकारण को ही (पुरु) नाना प्रकार के (वर्त्तनिः) मार्ग या लोक (अनु वावृते) पहुँचते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आत्मा देवता। शक्करीविराङ्गर्भा जगती। एकर्चं सूक्तम्॥

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