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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - द्यावापृथिवी, मित्रः, ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - बृहती
सूक्तम् - अञ्जन सूक्त
स्वाक्तं॑ मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी स्वाक्तं॑ मि॒त्रो अ॑कर॒यम्। स्वाक्तं॑ मे॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॒ स्वाक्तं॑ सवि॒ता क॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽआक्त॑म् । मे॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । सु॒ऽआक्त॑म् । मि॒त्र: । अ॒क॒: । अ॒यम् । सु॒ऽआक्त॑म् । मे॒ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । सु॒ऽआक्त॑म् । स॒वि॒ता । क॒र॒त् ॥३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाक्तं मे द्यावापृथिवी स्वाक्तं मित्रो अकरयम्। स्वाक्तं मे ब्रह्मणस्पतिः स्वाक्तं सविता करत् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽआक्तम् । मे । द्यावापृथिवी इति । सुऽआक्तम् । मित्र: । अक: । अयम् । सुऽआक्तम् । मे । ब्रह्मण: । पति: । सुऽआक्तम् । सविता । करत् ॥३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
विषय - ज्ञानाञ्जन।
भावार्थ -
(द्यावापृथिवी) द्यु और पृथिवी अर्थात् माता और पिता (मे) मेरी आंखों में (सु-आक्तम्) उत्तम रीति से अञ्जन करें, मुझे सब बातें खोलकर स्पष्ट रूप से बतलावें। (मित्रः) स्नेह करने वाला (अयम्) यह मेरा मित्र भी (मे सु-आक्तं) मेरी आंखों में ज्ञान का उत्तम अञ्जन लगावें। वह भी मेरे आगे सब बातें स्पष्ट रक्खें। (ब्रह्मणः पतिः) ब्रह्म अर्थात् वेद का परिपालक आचार्य भी (मे सु आक्तं) मेरी आंखों में ज्ञान का अञ्जन करे, मुझे सब ज्ञान स्पष्ट रीति से उपदेश करे। (सविता) सबका उत्पादक प्रेरक परमात्मा भी (मे सुआक्तं) मेरे हृदय के नेत्रों में अञ्जन लगाकर उनको दीर्घदर्शी करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः। द्यावापृथिव्यौ मित्रो ब्रह्मणस्पतिः सविता च देवता:। बृहती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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