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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
अ॒क्ष्यौ नौ॒ मधु॑संकाशे॒ अनी॑कं नौ स॒मञ्ज॑नम्। अ॒न्तः कृ॑णुष्व॒ मां हृ॒दि मन॒ इन्नौ॑ स॒हास॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्ष्यौ᳡ । नौ॒ । मधु॑संकाशे॒ इति॒ मधु॑ऽसंकाशे । अनी॑कम् । नौ॒ । स॒म्ऽअञ्ज॑नम् । अ॒न्त: । कृ॒णु॒ष्व॒ । माम् । हृ॒दि । मन॑: । इत् । नौ॒ । स॒ह । अस॑ति ॥३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम्। अन्तः कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति ॥
स्वर रहित पद पाठअक्ष्यौ । नौ । मधुसंकाशे इति मधुऽसंकाशे । अनीकम् । नौ । सम्ऽअञ्जनम् । अन्त: । कृणुष्व । माम् । हृदि । मन: । इत् । नौ । सह । असति ॥३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
विषय - पति पत्नी की परस्पर प्रेम वृद्धि की साधना।
भावार्थ -
वर वधू, पति पत्नी परस्पर प्रेम-व्यवहार बढ़ाने के लिए उक्त विचार सदा अपने चित्त में करें। हम पति और पत्नी हैं (नौ) हमारी (अक्ष्यो) आंखें (मधु-संकाशे) मधुर मधु के समान प्रेममय अमृत से सिची हों। (नौ) हमारा (सम् अञ्जनं) एक दूसरे के प्रति निःसंकोच व्यवहार और चित्त के भावों का स्पष्ट रूप में प्रकाश करना और परस्पर मिलना भी और (अनीकम्) सुखपूर्ण जीवन हो। हे प्रियतम ! और प्रियतमे ! (मां) मुझको तू (अन्तः हृदि) भीतर हृदय में (कृणुष्व) रख ले और (नौ) हम दौनों का (मनः इत्) मन भी (सह असति) सदा साथ रहे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अक्षि देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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