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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
सोमा॑रुद्रा॒ वि वृ॑हतं विषूची॒ममी॑वा॒ या नो॒ गय॑मावि॒वेश॑। बाधे॑थां दू॒रं निरृ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुक्तम॒स्मत् ॥
स्वर सहित पद पाठसोमा॑रुद्रा । वि । वृ॒ह॒त॒म् । विषू॑चीम् । अमी॑वा । या । न॒: । गय॑म् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । बाधे॑थाम् । दू॒रम् । नि:ऽऋ॑तिम् । प॒रा॒चै: । कृ॒तम् । चि॒त् । एन॑: । प्र । मु॒मु॒क्त॒म् । अ॒स्मत् ॥४३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमारुद्रा वि वृहतं विषूचीममीवा या नो गयमाविवेश। बाधेथां दूरं निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुक्तमस्मत् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमारुद्रा । वि । वृहतम् । विषूचीम् । अमीवा । या । न: । गयम् । आऽविवेश । बाधेथाम् । दूरम् । नि:ऽऋतिम् । पराचै: । कृतम् । चित् । एन: । प्र । मुमुक्तम् । अस्मत् ॥४३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
विषय - पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ -
हे (सोमरुद्रा) सोम और रुद्र, जल और अग्नि (या) जो (अमीवा) रोगकारी पदार्थ (नः) हमारे (गयम्) प्राण में, घर में या शरीर में (आविवेश) प्रविष्ट हो गया है उस (विषूचीम्) नाना प्रकार से शरीर में, घर में या देश में फैलनेवाले रोग का (वृहतम्) नाना प्रकार के उपायों से नाश करो। और आप दोनों (निः-ऋतिम्) सब प्रकार के कष्टों और दुःखों को (पराचैः) दूर ही (बाधेथाम्) रोको, दूर ही उसका विनाश करो। और (अस्मत्) हमसे (कृतम् चित्) किये हुए (एनः) पाप या रोग को (प्र मुमुक्तम्) छुड़ाओ।
सोम शब्द से—राजा, वायु, चन्द्र, क्षत्रिय, अन्न, प्राण, वीर्य, अमृत, आत्मा, ब्राह्मण आदि का ग्रहण होता है। रुद्र शब्द से अग्नि, घोर, प्रतिहर्त्ता, प्राण आदि लिये जाते हैं। यहां रोगनिवारण वा और पापनाशन का प्रकरण है। रोगनाशन में सोम और रुद्र दो प्रकार के चिकित्सक हैं। एक सोम = जलीय शान्त गुण औषधियों से चिकित्सा करने वाले, दूसरे रुद्र=तीक्ष्ण ओषधियों द्वारा चिकित्सा करने वाले। पापनाशन में आधिभौतिक में उपदेशक और दण्डकर्त्ता। आधिदैविक में जल और अग्नि। अध्यात्म में प्राण और अपान, या प्राण और उदान लेने चाहियें।
टिप्पणी -
‘ऋग्वेदे भारद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः’ (तृ०) ‘आरे बाधेथां निर्ऋतिं’ (च०) ‘मुमुग्ध्यस्मत्’ इति ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रस्कण्व ऋषिः। सोमरुद्रौ देवता। १, २ अनुष्टुभौ। द्वयृचं सूक्तम्॥
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