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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
कु॒हूं दे॒वीं सु॒कृतं॑ विद्म॒नाप॑सम॒स्मिन्य॒ज्ञे सु॒हवा॑ जोहवीमि। सा नो॑ र॒यिं वि॒श्ववा॑रं॒ नि य॑च्छा॒द्ददा॑तु वी॒रं श॒तदा॑यमु॒क्थ्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒हूम् । दे॒वीम् । सु॒ऽकृत॑म् । वि॒द्म॒नाऽअ॑पसम् । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । सु॒ऽहवा॑ । जो॒ह॒वी॒मि॒ । सा । न॒: । र॒यिम् । वि॒श्वऽवार॑म् । नि । य॒च्छा॒त् । ददा॑तु । वी॒रम् । श॒तऽदा॑यम् । उ॒क्थ्य᳡म् ॥४९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कुहूं देवीं सुकृतं विद्मनापसमस्मिन्यज्ञे सुहवा जोहवीमि। सा नो रयिं विश्ववारं नि यच्छाद्ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठकुहूम् । देवीम् । सुऽकृतम् । विद्मनाऽअपसम् । अस्मिन् । यज्ञे । सुऽहवा । जोहवीमि । सा । न: । रयिम् । विश्वऽवारम् । नि । यच्छात् । ददातु । वीरम् । शतऽदायम् । उक्थ्यम् ॥४९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
विषय - कुहू नामक अन्तरंगसभा का वर्णन।
भावार्थ -
अब उत्तरा अमावास्या का वर्णन करते हैं, जो उस साधारण महासभा की अन्तरंग सभा है। मैं सभापति (सु हवा) उत्तम रीति से आह्वान करने में समर्थ, उत्तम आज्ञापक, उत्तम मन्त्रणा देने में समर्थ, (अस्मिन् यज्ञे) इस राष्ट्रमय यज्ञ में (देवीं) विद्वानों की बनी, (विद्मना-अपसम्) समस्त उचित कर्तव्यों को जानने वाली, (सु-कृतं) उत्तम कार्य सम्पादन करने वाली (कुहूं) कुहू नामक गुप्तसभा अन्तरंग सभा को (जोहवीमि) आह्वान करता हूं, बुलाता हूं। (सा) वह (नः) हमें हम राष्ट्र के शासकों को (विश्व वारं) समस्त राष्ट्र के वरण करने योग्य, उनके अभिमत अथवा राष्ट्र की रक्षा करनेवाले (रयिम्) धन, यश, उत्तम कर्म का (नियच्छात्) उपदेश करे या उत्तम रयि = व्यवस्था पत्र को प्रदान करे, और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय या वेद के अनुसार (शत-दायम्) सैंकड़ों सुखों के देने वाले (वीरम्) सामर्थ्यवान् पुरुष को (ददातु) राष्ट्र के कार्य में प्रदान करे, नियुक्त करे।
राष्ट्रपति या मन्त्री (सुहवा) जिसको अन्तरंग सभा बुलाने का अधिकार हो। वह (विद्मनापसम्) अन्तरंग के सभासदों को पूर्व में विचारणीय विषय जना देवे और फिर बुलावे। उसमें सर्व हितकारी उत्तम निर्णयों या प्रस्तावों को स्वीकृत करावें और उनको कार्य रूप में खाने के लिये उत्तम शासक को नियत करे।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। कुहुर्देवी देवता। जगती। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥
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