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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विजय सूक्त

    यथा॑ वृ॒क्षं अ॒शनि॑र्वि॒श्वाहा॒ हन्त्य॑प्र॒ति। ए॒वाहम॒द्य कि॑त॒वान॒क्षैर्ब॑ध्यासमप्र॒ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । वृ॒क्षम् । अ॒शनि॑: । वि॒श्वाहा॑ । हन्ति॑ । अ॒प्र॒ति । ए॒व । अ॒हम् । अ॒द्य । कि॒त॒वान् । अ॒क्षै: । ब॒ध्या॒स॒म् । अ॒प्र॒ति ॥५२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा वृक्षं अशनिर्विश्वाहा हन्त्यप्रति। एवाहमद्य कितवानक्षैर्बध्यासमप्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । वृक्षम् । अशनि: । विश्वाहा । हन्ति । अप्रति । एव । अहम् । अद्य । कितवान् । अक्षै: । बध्यासम् । अप्रति ॥५२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (यथा) जिस प्रकार (अशनिः) मेघकी बिजुली (विश्वाहा) सब दिन, सदा ही (अप्रति) बिना किसी अन्य को प्रतिनिधि बनाये स्वयं ही (हन्ति) विनाश करती है, (कितवान्) तथा चतुर जुआरी जिस प्रकार जुआरियों को स्वयं पासों से मारता है (एवा) इस प्रकार ही (अहम्) मैं इन्द्र, आत्मा (अद्य) आज इन (कितवान्) जिनके पास कुछ नहीं ऐसे निःस्व, अचेतन जड़ विषयों को (अक्षैः) अपने अक्षों इन्द्रिय गण से (अप्रति) बिना अन्य किसी को प्रतिनिधि किये, स्वयं अपने बल से (बध्यासम्) मारूं, या ज्ञान और कर्म का विषय बनाऊं। अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय और प्राणेन्द्रियों से इन निश्चेतन जड़ पदार्थों को जो जीवन में बाधा उत्पन्न करें दबाकर अपने वश करलूं। अध्यात्म विषय को, ‘कितव’ या जुवारियों की क्रीड़ा के समान, ‘अश्व’ आदि द्वय्रर्थक पदों से श्लेष द्वारा वर्णन किया गया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।

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