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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 54

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ऋक्सामनी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विघ्नशमन सूक्त

    ऋचं॒ साम॑ यजामहे॒ याभ्यां॒ कर्मा॑णि कु॒र्वते॑। ए॒ते सद॑सि राजतो य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ यच्छतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋच॑म् । साम॑ । य॒जा॒म॒हे॒ । याभ्या॑म् । कर्मा॑णि । कु॒र्वते॑ । ए॒ते इति॑ । सद॑सि । रा॒ज॒त॒: । य॒ज्ञम् । दे॒वेषु॑ । य॒च्छ॒त॒: ॥५६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचं साम यजामहे याभ्यां कर्माणि कुर्वते। एते सदसि राजतो यज्ञं देवेषु यच्छतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋचम् । साम । यजामहे । याभ्याम् । कर्माणि । कुर्वते । एते इति । सदसि । राजत: । यज्ञम् । देवेषु । यच्छत: ॥५६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हम विद्वान् लोग (ऋचं) ऋग्वेद और (साम) सामवेद अर्थात् उसके मन्त्र-पाठ और गायन दोनों का (यजामहे) अपने शिष्यों को उपदेश करते हैं। (याभ्यां) जिन दोनों के द्वारा (कर्माणि) समस्त यज्ञ कर्म, लौकिक और पारमार्थिक कर्म (कुर्वते) लोग किया करते हैं। (सदसि) इस संसार में (एते) ये ऋग्वेद और सामवेद दोनों ही (राजतः) प्रकाशमान हैं। और ये दोनों (देवेषु) विद्वानों के भीतर (यज्ञं) यज्ञ का या प्रभु परमात्मा के स्वरूप का (यच्छतः) उपदेश करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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