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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
यदा॒शसा॒ वद॑तो मे विचुक्षु॒भे यद्याच॑मानस्य॒ चर॑तो॒ जनाँ॒ अनु॑। यदा॒त्मनि॑ त॒न्वो मे॒ विरि॑ष्टं॒ सर॑स्वती॒ तदा पृ॑णद्घृ॒तेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒ऽशसा॑ । वद॑त: । मे॒ । वि॒ऽचु॒क्षु॒भे । यत् । याच॑मानस्य । चर॑त: । जना॑न् । अनु॑ । यत् । आ॒त्म्ननि॑ । त॒न्व᳡: । मे॒ । विऽरि॑ष्टम् । सर॑स्वती । तत् । आ । पृ॒ण॒त् । घृ॒तेन॑ ॥५९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदाशसा वदतो मे विचुक्षुभे यद्याचमानस्य चरतो जनाँ अनु। यदात्मनि तन्वो मे विरिष्टं सरस्वती तदा पृणद्घृतेन ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आऽशसा । वदत: । मे । विऽचुक्षुभे । यत् । याचमानस्य । चरत: । जनान् । अनु । यत् । आत्म्ननि । तन्व: । मे । विऽरिष्टम् । सरस्वती । तत् । आ । पृणत् । घृतेन ॥५९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
विषय - सरस्वती रूप ईश्वर से प्रार्थना।
भावार्थ -
(जनान्) सर्वसाधारण लोगों के (अनु) हित के लिए उनके प्रति (मे वदतो) मेरे बोलते हुए (आशसा) उन द्वारा किए गए मेरे प्रति घात-प्रतिघात, पीड़ाकारी प्रयत्न, हिंसन आदि द्वारा मेरा (यत्) जो मन (वि-चुक्षुभे) विक्षोभ या व्याकुलता को प्राप्त हो, और (जनान् अनु चरतः) लोगों के हित के लिए उनके पास जा जा कर (याचमानस्य) भिक्षा करते हुए (यत् मे वि चुक्षुभे) जो मेरा मन विक्षोभ, व्याकुलता या बेचैनी को प्राप्त हो और (मे तन्वः) मेरे शरीर में और (आत्मनि) आत्मा तथा मन में (यत् विरिष्टं) जो विशेष रूप से क्षति आई हो, चोट पहुंची हो, (सरस्वती) विद्या देवी, (वृतेन) अपने ज्ञानमय और स्नेहमय घृत = मरहम से (तत्) उस घावको (आ-पृणत्) पूरदे, भरदे, आरोग्य करदे। लोकहित के व्याख्यान देने और लोकहित के कामों में भिक्षा करने में शतशः लोकप्रवाद और दुरपवादों से जो मानस विक्षोभ, भाघात, व्यथाएं और हृदय की चोटें उत्पन्न हों उनको आन्तरिक विज्ञानमयी हृदय-देवता सरस्वती भरदे। वह ज्ञानमयी देवी परमात्मा ही है।
वाक् वै सरस्वती। श० ५। ५। ४। २५॥ योषा वै सरस्वती पूषा वृषा। श० ५ । ५। १। ११॥ ऋक् सामे वै सारस्वतावुत्सौ। तै० १। ४। ४। ९॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। कौ० १२। २॥ वाणी सरस्वती है। घर की स्त्री भी सरस्वती है। ज्ञानमय प्रभु की ऋग्वेद, सामवेद ये दोनों सरस्वती के दो स्रोत हैं। सरस्वती ज्ञानमय वज्र है, वह पुष्टिकर देवी है, जो आत्मा में बल उत्पन्न करती है।
टिप्पणी -
वाक् वै सरस्वती। श० ५। ५। ४। २५॥ योषा वै सरस्वती पूषा वृषा। श० ५ । ५। १। ११॥ ऋक् सामे वै सारस्वतावुत्सौ। तै० १। ४। ४। ९॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। कौ० १२। २॥ वाणी सरस्वती है। घर की स्त्री भी सरस्वती है। ज्ञानमय प्रभु की ऋग्वेद, सामवेद ये दोनों सरस्वती के दो स्रोत हैं। सरस्वती ज्ञानमय वज्र है, वह पुष्टिकर देवी है, जो आत्मा में बल उत्पन्न करती है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। सरस्वती देवता। जागतं छन्दः। द्वयृचं सूक्तम्॥
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