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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - पुरःपरोष्णिग्बृहती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
पुन॑र्मैत्विन्द्रि॒यं पुन॑रा॒त्मा द्रवि॑णं॒ ब्राह्म॑णं च। पुन॑र॒ग्नयो॒ धिष्ण्या॑ यथास्था॒म क॑ल्पयन्तामि॒हैव ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । मा॒ । आ । ए॒तु॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । पुन॑: । आ॒त्मा । द्रवि॑णम् । ब्राह्म॑णम् । च॒ । पुन॑: । अ॒ग्नय॑: । धिष्ण्या॑: । य॒था॒ऽस्था॒म । क॒ल्प॒य॒न्ता॒म् । इ॒ह । ए॒व ॥६९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनर्मैत्विन्द्रियं पुनरात्मा द्रविणं ब्राह्मणं च। पुनरग्नयो धिष्ण्या यथास्थाम कल्पयन्तामिहैव ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । मा । आ । एतु । इन्द्रियम् । पुन: । आत्मा । द्रविणम् । ब्राह्मणम् । च । पुन: । अग्नय: । धिष्ण्या: । यथाऽस्थाम । कल्पयन्ताम् । इह । एव ॥६९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
विषय - शरीरस्थ अग्नियें।
भावार्थ -
(मा) मुझे (इन्द्रियं) इन्द्रियों का सामर्थ्य, बल (पुनः) फिर प्राप्त हो। अथवा मुझे इन्द्र, परमेश्वर का बल अथवा चक्षु आदि इन्द्रियगण पुनः पुनः प्राप्त हों। (आत्मा) मन, जीव और देह (द्रविणम्) धन और (ब्राह्मणं च) ब्रह्मज्ञान भी पुनः पुनः प्राप्त हो। (धिष्ण्याः) आधान के स्थान में विहरण करने वाले (अग्नयः) अग्नियां, आहवनीय, गार्हपत्य और अन्वाहार्यपचन आदि (यथा-स्थाम) अपने अपने स्थानों पर (इह एव) इस लोक में, देह में, गृह में भी (पुनः) बार बार (कल्पयन्ताम्) प्रज्वलित हों, समर्थ हों। शरीरस्थ अग्नियों का विवरण प्राणाग्निहोत्र उपनिषत् के अनुसार इस प्रकार है। (१) सूर्य-अग्नि ‘एक ऋषि’ होकर मूर्धा स्थान पर विराजती हैं। (२) दर्शनाग्नि आहवनीयाग्नि होकर मुख में बैठती है। (३) शारीर अग्नि, जठर में हवि प्राप्त करती है, वही दक्षिणाग्नि होकर हृदय में बैठती है। (४) कोष्ठाग्नि गार्हपत्य होकर नाभि में रहती है। (५) उससे नीचे प्रायश्चित्ती अग्नि प्रजननांग में रहती हैं। ये पांचों शरीर धारण करने से और शरीर में विद्यमान रहने से ‘धिस्थ्य’ कहाती हैं। अथवा ‘धिषणा’ बुद्धि द्वारा प्रेरित होने से ‘धिष्ण्य’ कहाती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आत्मा देवता। पुरः पुरोष्णिग् बृहती। एकर्चं सूक्तम्॥
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