अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - धर्म सूक्त
समि॑द्धो अ॒ग्निर्वृ॑षणा र॒थी दि॒वस्त॒प्तो घ॒र्मो दु॑ह्यते वामि॒षे मधु॑। व॒यं हि वां॑ पुरु॒दमा॑सो अश्विना हवामहे सध॒मादे॑षु का॒रवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । वृ॒ष॒णा॒ । र॒थी । दि॒व: । त॒प्त: । ध॒र्म: । दु॒ह्य॒ते॒ । वा॒म् । इ॒षे । मधु॑ । व॒यम् । हि । वा॒म् । पु॒रु॒ऽदमा॑स: । अ॒श्वि॒ना॒ । हवा॑महे । स॒ध॒ऽमादे॑षु । का॒रव॑: ॥७७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अग्निर्वृषणा रथी दिवस्तप्तो घर्मो दुह्यते वामिषे मधु। वयं हि वां पुरुदमासो अश्विना हवामहे सधमादेषु कारवः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्द: । अग्नि: । वृषणा । रथी । दिव: । तप्त: । धर्म: । दुह्यते । वाम् । इषे । मधु । वयम् । हि । वाम् । पुरुऽदमास: । अश्विना । हवामहे । सधऽमादेषु । कारव: ॥७७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ -
हे (अश्विना) दोनों अश्वियो ! स्त्री पुरुषो ! (दिवः) द्युलोक का (रथी) रथवाला, विजयी, रमणकारी, प्रकाशमान (अग्निः) सूर्य (सम्-इद्धः) खूब प्रकाशित हो रहा है। (धर्मः) धर्म, घाम (तप्तः) तप गया है। (वाम्) तुम दोनों के लिये (इषे) अन्न के उपभोग के लिये (मधु) मधुर दुग्ध (दुह्यते) दुहा जाता है। हे (अश्विनौ) दोनों स्त्री पुरुषो ! (पुरु-दमासः) इन्द्रियों कों दमन करने हारे अथवा बहुत से घरों वाले धनाढ्य (वयं) हम (कारवः) कार्य करने में समर्थ पुरुष (सघ-मादेषु) एक साथ आनन्द हर्ष के अवसरों पर (वाम्) तुम दोनों को (हवामहे) आमन्त्रित करते हैं। जब सूर्य उग आवे, गाय दुही जायं, सम्पन्न लोग विद्वान् स्त्री पुरुषों को अपने यहां आमन्त्रित करें। अध्यात्म में—साधक आत्मज्ञान होने पर साक्षात् करता है, वह (दिवः रथी) मोक्षाख्य प्रकाश का रमणकारी आत्मा-अग्नि अब चेत गया है। धर्म = तेजोमय रस प्राप्त होगया है। प्राण और अपान दोनों के निमित्त मधुर रस का दोहन किया जाता है। इन्द्रियों के विजेता, जितेन्द्रिय हम उन अश्वियों, प्राणों को समाधि काल के आनन्द प्राप्ति के कालों में आह्वान करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
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