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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 75

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
    सूक्त - उपरिबभ्रवः देवता - अघ्न्या छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अघ्न्या सूक्त

    प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः। मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाऽव॑ती: । सु॒ऽयव॑से । रु॒शन्ती॑: । शु॒ध्दा: । अ॒प: । सु॒ऽप्र॒पा॒ने । पिब॑न्ती: । मा । व॒: । स्ते॒न: । ई॒श॒त॒ । मा । अ॒घऽशं॑स: । परि॑ । व॒: । रु॒द्रस्य॑ । हे॒ति: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥७९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजावतीः सूयवसे रुशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः। मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजाऽवती: । सुऽयवसे । रुशन्ती: । शुध्दा: । अप: । सुऽप्रपाने । पिबन्ती: । मा । व: । स्तेन: । ईशत । मा । अघऽशंस: । परि । व: । रुद्रस्य । हेति: । वृणक्तु ॥७९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे गौवो ! तुम (प्रजा-वतीः) बछड़ों वाली होकर (सुयवसे रुशन्तीः) उत्तम तृण आदि भोजन के लिये चरती हुई और (सु-प्र-पाने) उत्तम जलपान के स्थान पर (शुद्धाः अपः पिबन्तीः) शुद्ध जलों का पान करती हुई विचरों। (स्तेनः) चोर (वः) तुम पर (मा ईशत) शासन न करे। (अध-शंसः) पापी और दूसरों को पाप करने की शिक्षा देने वाले व्यक्ति भी तुम पर (मा इशत) स्वामी न रहें। बल्कि (रुद्रस्य) दुष्टों को रुलाने वाले राजा का (हेतिः) शस्त्र-बल (वः) तुम्हारी (परि-वृणक्तु) सब ओर से रक्षा करे। गौएं शुद्ध जल पान करें, उत्तम घास खावें, राजा उनकी रक्षा का प्रबन्ध करे और चोर हत्यारों और हत्या करने के लिये दूसरों को प्रेरित करने वालों को अपने पास गौएं रखने का अधिकार न हो। अध्यात्म में—(प्रजावतीः सूयवसे रुशन्तीः) आत्माएँ या स्त्रियां उत्तम ज्ञान से सम्पन्न होकर उस परमब्रह्म में विचरती हुई (सु-प्रपाणे शुद्धाः अपः पिबन्तीः) उत्तम आनन्द रस से भरे ब्रह्मधाम में ही शुद्ध स्वच्छ, निर्मल, अमृत जलों का पान करती हुई विचरें। (स्तेनः अघशंसः मा ईशत) चोर, अतपस्वी और पापी इनको नहीं पावें। और (रुद्रस्य हेतिः वः परि वृणक्तु) रुद्र की आघातकारिणी शक्ति तुम पर आघात न करे। प्रत्युत रक्षा करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उपरिवभ्रव ऋषिः। अध्न्या देवता, अध्न्या स्तुतिः। १ त्रिष्टुप्। २ त्र्यवसाना पञ्चपदा, भुरिक् पथ्यापंक्तिः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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