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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    सांत॑पना इ॒दं ह॒विर्मरु॑त॒स्तज्जु॑जुष्टन। अ॒स्माको॒ती रि॑शादसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    साम्ऽत॑पना: । इ॒दम् । ह॒वि: । मरु॑त: । तत् । जु॒जु॒ष्ट॒न॒ । अ॒स्माक॑ । ऊ॒ती । रि॒शा॒द॒स॒: ॥८२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सांतपना इदं हविर्मरुतस्तज्जुजुष्टन। अस्माकोती रिशादसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साम्ऽतपना: । इदम् । हवि: । मरुत: । तत् । जुजुष्टन । अस्माक । ऊती । रिशादस: ॥८२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (सांतपनाः) भली प्रकार तपश्चरण करनेवाले (मरुतः) विद्वान् पुरुषों ! अथवा हे शत्रुओं को अच्छी प्रकार तपानेवाले (मरुतः) वायु के समान तीव्र गति वाले सैनिक भटो ! (इदं हविः) तुम लोगों के निमित्त यह अन्न पर्याप्त रूप में विद्यमान है। (तत्) उसको (जुजुष्टन) प्रेम से स्वीकार करो। और हे (रिशादसः) हिंसक शत्रुओं के विनाशक ! भाप लोग (अस्माकम्) हमारी (ऊती) रक्षा के लिये रहो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिराः ऋषिः। मरुतः सांतपना मन्त्रोक्ताः देवताः। १ त्रिपदा गायत्री। २ त्रिष्टुप्। ३ जगती। तृचात्मकं सूक्तम्॥

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