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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त

    अ॒प्सु ते॑ राजन्वरुण गृ॒हो हि॑र॒ण्ययो॑ मि॒थः। ततो॑ धृ॒तव्र॑तो॒ राजा॒ सर्वा॒ धामा॑नि मुञ्चतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । ते॒ । रा॒ज॒न् । व॒रु॒ण॒ । गृ॒ह: । हि॒र॒ण्यय॑: । मि॒थ: । तत॑: । धृ॒तऽव्र॑त: । राजा॑ । सर्वा॑ । धामा॑नि । मु॒ञ्च॒तु॒ ॥८८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु ते राजन्वरुण गृहो हिरण्ययो मिथः। ततो धृतव्रतो राजा सर्वा धामानि मुञ्चतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । ते । राजन् । वरुण । गृह: । हिरण्यय: । मिथ: । तत: । धृतऽव्रत: । राजा । सर्वा । धामानि । मुञ्चतु ॥८८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (वरुण) वरुण ! सर्वश्रेष्ठ, सब पापों के निवारक, सब के वरण करने योग्य परमात्मन् ! (राजन्) राजा के समान सर्वोपरि (ते) तेरा (गृहः) सबको ग्रहण करने वाला, सब देहों का शासक धाम, (अप्सु) जीवों और समस्त लोकों में (हिरण्ययः) सुवर्ण के समान तेजोमय (मिथः = मितः) जाना गया है। (ततः) वहां ही विराजमान (धृत-व्रतः) समस्त ज्ञान और कर्मों का धारण करने हारा (राजा) प्रकाशस्वरूप राजा के समान सबका अनुरंजनकारी तू (सर्वाधामानि = दामानि) समस्त बन्धनों को (मुञ्चतु) छुड़ा। वरुण वही परमात्मा ब्रह्म है जिसके “भित हिरण्ययगृह” की तुलना उपनिषद् के तत्वज्ञों को उपनिषत् के निम्नलिखित स्थलों से करनी चाहिये। “ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिदि तदैरंमदीयं सरः। तदश्वत्थः सोमसवनः। तदपराजिता पूर्ब्रह्मणः। प्रभुविमितं हिरण्मयम्।” इति छान्दो० उप०। ५।३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनः शेप ऋषिः। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्। २ पथ्यापंक्तिः, ३ त्रिष्टुप्, ४ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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