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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तव॒ स्वादि॒ष्ठाग्ने॒ संदृ॑ष्टिरि॒दा चि॒दह्न॑ इ॒दा चि॑द॒क्तोः। श्रि॒ये रु॒क्मो न रो॑चत उपा॒के ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । स्वादि॑ष्ठा । अग्ने॑ । सम्ऽदृ॑ष्टिः । इ॒दा । चि॒त् । अह्नः॑ । इ॒दा । चि॒त् । अ॒क्तोः । श्रि॒ये । रु॒क्मः । न । रो॒च॒ते॒ । उ॒पा॒के ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव स्वादिष्ठाग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः। श्रिये रुक्मो न रोचत उपाके ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। स्वादिष्ठा। अग्ने। सम्ऽदृष्टिः। इदा। चित्। अह्नः। इदा। चित्। अक्तोः। श्रिये। रुक्मः। न। रोचते। उपाके॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (अग्ने) तेजस्विन् ! राजन् ! सूर्य और अग्नि के (रुक्मः न) तेज के समान के वा स्वर्ण के तुल्य (अह्नः चित् अक्तोः चित्) दिन और रात्रि में भी (रुक्मः) तेरा ऐश्वर्यमय तेज और (स्वादिष्ठा) अति अधिक आनन्द ऐश्वर्य भोग का सुख स्वाद देने वाली (संदृष्टिः) सम्यक दृष्टि, ज्ञान, उत्तम न्याय प्रदर्शन का सामर्थ्य (उपाके) सबके समीप (श्रिये) शोभा और ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (रोचते) प्रकाशित हो, चमके, सबको अच्छा लगे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १ गायत्री । २, ३, ४, ७ भुरिग्गायत्री । ५, ८ स्वरडुष्णिक् । ६ विराडुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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