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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    घृ॒तं न पू॒तं त॒नूर॑रे॒पाः शुचि॒ हिर॑ण्यम्। तत्ते॑ रु॒क्मो न रो॑चत स्वधावः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम् । न । पू॒तम् । त॒नूः । अ॒रे॒पाः । शुचि॑ । हिर॑ण्यम् । तत् । ते॒ । रु॒क्मः । न । रो॒च॒त॒ । स्व॒धा॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतं न पूतं तनूररेपाः शुचि हिरण्यम्। तत्ते रुक्मो न रोचत स्वधावः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम्। न। पूतम्। तनूः। अरेपाः। शुचि। हिरण्यम्। तत्। ते। रुक्मः। न। रोचत। स्वधाऽवः॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (स्वधावः) अन्नों के स्वामी, अन्नदाता ! स्वयं अपने बल से राष्ट्र को धारण करने वाली शक्ति के स्वामिन्! (ते तनूः) तेरा देह और विस्तृत शक्ति, (घृतं न पूतं) जल वा घी के तुल्य पवित्र (शुचि) शुद्ध, कान्तिमान् (हिरण्यम्) सुवर्ण के समान सत्रको हितकारी और रमणीय है। (तत्) वह (ते) तेरा देह, (रुक्मः) सुवर्ण और सूर्य के प्रकाश के तुल्य (रोचत) प्रकाशित हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १ गायत्री । २, ३, ४, ७ भुरिग्गायत्री । ५, ८ स्वरडुष्णिक् । ६ विराडुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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