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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    शि॒वा नः॑ स॒ख्या सन्तु॑ भ्रा॒त्राग्ने॑ दे॒वेषु॑ यु॒ष्मे। सा नो॒ नाभिः॒ सद॑ने॒ सस्मि॒न्नूध॑न् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒वा । नः॒ । स॒ख्या । सन्तु॑ । भ्रा॒त्रा । अग्ने॑ । दे॒वेषु॑ । यु॒ष्मे इति॑ । सा । नः॒ । नाभिः॑ । सद॑ने । सस्मि॑न् । ऊध॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवा नः सख्या सन्तु भ्रात्राग्ने देवेषु युष्मे। सा नो नाभिः सदने सस्मिन्नूधन् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिवा। नः। सख्या। सन्तु। भ्रात्रा। अग्ने। देवेषु। युष्मे इति। सा। नः। नाभिः। सदने। सस्मिन्। ऊधन्॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! राजन् ! प्रभो ! (नः) हमारी (सख्या) मित्रताएं और (भ्रात्रा) भाईचारे के कार्य (युष्मे देवेषु) तुम व्यवहारकुशल पुरुषों के बीच (शिवा सन्तु) सदा शुभ कल्याणकारी हों, अथवा हे अग्ने (देवेषु) देव, विद्वानों और व्यवहार कुशल पुरुषों के बीच (नः सख्या भ्रात्रा) हमारे भाई और मित्र सहित हमारे सब व्यवहार एवं कार्य नीति (शिवा भवन्तु) शिव, कल्याणकारी हों । और (सा) वह उत्तम नीति ही (सस्मिन्) समस्त (उधन्) धन धान्य सम्पन्न (सदने) गृह वा राज्य में (नः) हमें (नाभिः) केन्द्रस्थ नाभि के तुल्य बांधने वाली हो । अर्थात् जिस प्रकार (ऊधन्) एक माता के दूध पर पलने वाले बालकों की एक नाभि, एक भ्रातृ-सम्बन्ध है इसी प्रकार एक (सदने) सभा भवन वा राज्य में या प्रतिष्ठित पद के अधीन रहने वालों की एक (नाभिः) केन्द्र, बंधन या संगठन हो । इति दशमो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १ गायत्री । २, ३, ४, ७ भुरिग्गायत्री । ५, ८ स्वरडुष्णिक् । ६ विराडुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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