ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
प्र ते॒ पूर्वा॑णि॒ कर॑णानि विप्रावि॒द्वाँ आ॑ह वि॒दुषे॒ करां॑सि। यथा॑यथा॒ वृष्ण्या॑नि॒ स्वगू॒र्तापां॑सि राज॒न्नर्यावि॑वेषीः ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । पूर्वा॑णि । कर॑णानि । वि॒प्र॒ । आ॒ऽवि॒द्वान् । आ॒ह॒ । वि॒दुषे॑ । करां॑सि । यथा॑ऽयथा । वृष्ण्या॑नि । स्वऽगू॒र्ता । अपां॑सि । रा॒ज॒न् । नर्या॑ । अवि॑वेषीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते पूर्वाणि करणानि विप्राविद्वाँ आह विदुषे करांसि। यथायथा वृष्ण्यानि स्वगूर्तापांसि राजन्नर्याविवेषीः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। पूर्वाणि। करणानि। विप्र। आऽविद्वान्। आह। विदुषे। करांसि। यथाऽयथा। वृष्ण्यानि। स्वऽगूर्ता। अपांसि। राजन्। नर्या। अविवेषीः ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
विषय - सनातन वेद-धर्मों का प्रवर्त्तन करे ।
भावार्थ -
हे (विप्र) विद्वन् ! हे बुद्धिमान् पुरुष ! (यथायथा) जिस प्रकार से (आविद्वान्) समस्त विद्याओं का जानने वाला, बहुदर्शी विद्वान् (ते विदुषे) तुझ विद्या लाभ करने वाले के हितार्थ (पूर्वाणि) सनातन से चले आये, पूर्व विद्यमान (करणानि) साधनों और (करांसि) करने योग्य कार्यों का (आह) उपदेश करे उसी प्रकार से हे (राजन्) राजन् ! तू (वृष्ण्यानि) बल उत्पादक, बल से साध्य, (स्वगूर्त्ता) अपने ही उद्यम से साधने योग्य (नर्या) मनुष्यों के हितकारी (अपांसि) कर्मों को (आ विवेषीः) आदरपूर्वक स्वयं कर, चाह,जिस और रक्षा कर ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें