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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्र ते॒ पूर्वा॑णि॒ कर॑णानि विप्रावि॒द्वाँ आ॑ह वि॒दुषे॒ करां॑सि। यथा॑यथा॒ वृष्ण्या॑नि॒ स्वगू॒र्तापां॑सि राज॒न्नर्यावि॑वेषीः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । पूर्वा॑णि । कर॑णानि । वि॒प्र॒ । आ॒ऽवि॒द्वान् । आ॒ह॒ । वि॒दुषे॑ । करां॑सि । यथा॑ऽयथा । वृष्ण्या॑नि । स्वऽगू॒र्ता । अपां॑सि । रा॒ज॒न् । नर्या॑ । अवि॑वेषीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते पूर्वाणि करणानि विप्राविद्वाँ आह विदुषे करांसि। यथायथा वृष्ण्यानि स्वगूर्तापांसि राजन्नर्याविवेषीः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। ते। पूर्वाणि। करणानि। विप्र। आऽविद्वान्। आह। विदुषे। करांसि। यथाऽयथा। वृष्ण्यानि। स्वऽगूर्ता। अपांसि। राजन्। नर्या। अविवेषीः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्गुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे विप्र राजन् विदुषे ! ते यथायथा पूर्वाणि करणानि करांसि वृष्ण्यानि स्वगूर्त्ता नर्य्याऽपांस्याऽऽविद्वान् प्राह तानि त्वमविवेषीः ॥१०॥

    पदार्थः

    (प्र) (ते) तव (पूर्वाणि) सनातनानि (करणानि) क्रियन्ते यैस्तानि (विप्र) मेधाविन् (आविद्वान्) यः समन्तात् सर्वं वेत्ति (आह) ब्रूते (विदुषे) (करांसि) करणीयानि कर्म्माणि (यथायथा) (वृष्ण्यानि) बलकराणि (स्वगूर्त्ता) स्वेन प्राप्तानि (अपांसि) कर्म्माणि (राजन्) (नर्य्या) नृषु हितानि (अविवेषीः) विशेषेण प्राप्नुयाः ॥१०॥

    भावार्थः

    हे विद्वन् ! राजँस्त्वं सदाप्तशासने प्रवर्त्तस्व यद्यत्ते त उपदिशेयुस्तथैव कुरुष्व ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विप्र) बुद्धिमान् (राजन्) राजन् ! (विदुषे) विद्वान् ! (ते) आपके लिये (यथायथा) जैसे-जैसे (पूर्वाणि) अनादि काल से सिद्ध (करणानि) जिनसे करें वह कार्य्यसाधन (करांसि) और करने योग्य कर्म्म (वृष्ण्यानि) बलकारक (स्वगूर्त्ता) अपने से प्राप्त (नर्य्या) मनुष्यों में हित करनेवाले (अपांसि) कर्म्मों को (आविद्वान्) सब प्रकार से समस्त जानता हुआ (प्र, आह) अच्छे कहता है, उनको आप (अविवेषीः) विशेष करके प्राप्त हूजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे विद्वन् राजन् ! आप सदा श्रेष्ठ पुरुषों की शिक्षा में प्रवृत्त हूजिये और जो-जो आपके लिये वे उपदेश देवें, वैसे ही करिये ॥१०॥

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    विषय

    करणों व कर्मों का ज्ञान

    पदार्थ

    [१] हे (विप्र) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (पूर्वाणि) = पालन व पूरण करनेवाले (करणानि) = करणों को (आविद्वान्) = सम्यग् जानता हुआ यह पुरुष विदुषे एक समझदार व्यक्ति के लिए (करांसि) = करने योग्य कर्मों को (प्र आह) = प्रकर्षेण कहता है । एक ज्ञानी-पुरुष [आचार्य] समझदार शिष्य के लिए बतलाता है कि प्रभु ने किस प्रकार 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप सुन्दर करण [साधन] दिये हैं। इनका ठीक प्रयोग करते हुए इन यज्ञादि व ज्ञानप्राप्ति के कर्मों को करना चाहिए। [२] वह आचार्य विद्यार्थी को बतलाता है कि (यथा यथा) = जिस-जिस प्रकार, (राजन्) = सम्पूर्ण संसार के शासक प्रभो! आप (वृष्ण्यानि) = सुखों के वर्षण करने में उत्तम (स्वगूर्ता) = आत्मतत्त्व को उद्गूर्ण करनेवाले-आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले (नर्या) = नरहितकारी (अपांसि) = कर्मों को (अविवेषी:) = व्याप्त करते हैं। उन कर्मों का उपदेश करके आचार्य विद्यार्थी को वैसे ही कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- आचार्य विद्यार्थी को प्रभु से प्राप्त कराए गये करणों का संकेत करते कर्तव्यकर्मों का ज्ञान दे । सामान्यतः वे कर्म सुखवर्धक, आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले तथा नरहितकारी हों।

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    विषय

    सनातन वेद-धर्मों का प्रवर्त्तन करे ।

    भावार्थ

    हे (विप्र) विद्वन् ! हे बुद्धिमान् पुरुष ! (यथायथा) जिस प्रकार से (आविद्वान्) समस्त विद्याओं का जानने वाला, बहुदर्शी विद्वान् (ते विदुषे) तुझ विद्या लाभ करने वाले के हितार्थ (पूर्वाणि) सनातन से चले आये, पूर्व विद्यमान (करणानि) साधनों और (करांसि) करने योग्य कार्यों का (आह) उपदेश करे उसी प्रकार से हे (राजन्) राजन् ! तू (वृष्ण्यानि) बल उत्पादक, बल से साध्य, (स्वगूर्त्ता) अपने ही उद्यम से साधने योग्य (नर्या) मनुष्यों के हितकारी (अपांसि) कर्मों को (आ विवेषीः) आदरपूर्वक स्वयं कर, चाह,जिस और रक्षा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वान राजा ! तू सदैव श्रेष्ठ पुरुषांच्या व्यवस्थापनात राहा व जो जो तुला उपदेश मिळेल तसे वाग. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Raj an, glorious ruler of the world, the deeds of ancient and eternal value you have done, the programmes you have accomplished, and the self proclaiming acts of generosity and noble adventures you have performed, the noble scholar and poet sings and celebrates in your honour, O wise leader and master, exactly as you have performed in the interest of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a learned person are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly intelligent king! a great scholar tells you about the highly learned and ancient persons and their noble actions. These are beneficent to the people, promote the strength, and are necessarily to be done at the proper time. You should therefore to do them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned king ! you should be under the instructions of the absolutely truthful and highly learned persons. Do in accordance with to their teachings.

    Foot Notes

    (वृष्ण्यानि) बलकराणि । = Strengthening. (स्वगूर्त्ता) स्वेन प्राप्तानि । = Received.

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