ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अवा॑सृजन्त॒ जिव्र॑यो॒ न दे॒वा भुवः॑ स॒म्राळि॑न्द्र स॒त्ययो॑निः। अह॒न्नहिं॑ परि॒शया॑न॒मर्णः॒ प्र व॑र्त॒नीर॑रदो वि॒श्वधे॑नाः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । अ॒सृ॒ज॒न्त॒ । जिव्र॑यः । न । दे॒वाः । भुवः॑ । स॒म्ऽराट् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्यऽयो॑निः । अह॑न् । अहि॑म् । प॒रि॒ऽशया॑नम् । अर्णः॑ । प्र । व॒र्त॒नीः । अ॒र॒दः॒ । वि॒श्वऽधे॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवासृजन्त जिव्रयो न देवा भुवः सम्राळिन्द्र सत्ययोनिः। अहन्नहिं परिशयानमर्णः प्र वर्तनीररदो विश्वधेनाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअव। असृजन्त। जिव्रयः। न। देवाः। भुवः। सम्ऽराट्। इन्द्र। सत्यऽयोनिः। अहन्। अहिम्। परिऽशयानम्। अर्णः। प्र। वर्तनीः। अरदः। विश्वऽधेनाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - सूर्य मेघ के दृष्टान्त से विद्वानों, वीरों का प्रयाण और राजा का शासन । विघ्नकारी शत्रु का विनाश ।
भावार्थ -
(जिव्रयः देवाः न) जीवन देने वाले सूर्य किरण जब (अव असृजन्त) नीचे भूतल पर आते हैं तब (सम्राट् सत्ययोनिः) देदीप्यमान सूर्य मेघ का उत्पादक होता है और वह (परिशयानम् अहिम् अहम्) फैले हुए मेघ को आघात करता है (अर्णः) जल (विश्वधेनाः वर्त्तनीः अरदः) सबको तृप्त करने वाले जल मार्गों को बना लेता है उसी प्रकार (जिव्रयः) विजयशील (देवाः) तेजस्वी पुरुष (अव असृजन्त) प्रयाण करें, और (सत्ययोनिः) सत्य न्याय का आश्रय रूप राजा (भुवः) इस भूमि का (सम्राट्) तेजस्वी महाराज हो । हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (परिशयानम्) सर्वत्र फैले (अहिम्) सामने से आघात करने वाले, विनकारी शत्रु को (अहन्) विनाश करे । और (अर्णः) जल के समान शीतल स्वभाव होकर तू (विश्वधेनाः) समस्त जगत को आनन्द से तृप्त करने वाले (वर्त्तनीः) सुखदायक मार्गो, न्याय-शासनों को (प्र अरदः) अच्छी प्रकार बना ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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