ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
गर्भे॒ नु सन्नन्वे॑षामवेदम॒हं दे॒वानां॒ जनि॑मानि॒ विश्वा॑। श॒तं मा॒ पुर॒ आय॑सीररक्ष॒न्नध॑ श्ये॒नो ज॒वसा॒ निर॑दीयम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठगर्भे॑ । नु । सन् । अनु॑ । ए॒षा॒म् । अ॒वे॒द॒म् । अ॒हम् । दे॒वाना॑म् । जनि॑मानि । विश्वा॑ । श॒तम् । मा॒ । पुरः॑ । आय॑सीः । अ॒र॒क्ष॒न् । अध॑ । श्ये॒नः । ज॒वसा॑ । निः । अ॒दी॒य॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भे नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा। शतं मा पुर आयसीररक्षन्नध श्येनो जवसा निरदीयम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठगर्भे। नु। सन्। अनु। एषाम्। अवेदम्। अहम्। देवानाम्। जनिमानि। विश्वा। शतम्। मा। पुरः। आयसीः। अरक्षन्। अध। श्येनः। जवसा। निः। अदीयम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - जीव का वर्णन । आवागमन का सिद्धान्त ।
भावार्थ -
जीव का वर्णन करते हैं । (अहम्) मैं जीव (गर्भे) मैं (नु सन्) प्राप्त होकर ही (एषां) इन (देवानां) चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के (विश्वा) समस्त (जनिमानि) प्रादुर्भावों, को (अनु अवेदम्) अपने अनुकूल विषयों के ग्रहण करने में सहायक साधन रूप से प्राप्त करता हूं । (आयसीः पुरः) राजा को लोह वा सुवर्ण की बनी दृढ़ नगरियों के समान (मा) मुझ जीव को (शतं) सैकड़ों (आयसीः) आगमन और निर्गमन, आवागमन से युक्त, या चेतना से युक्त (शतं पुरः) सैकड़ों इच्छा पूर्ति करने वाली देह रूप नगरियां (अरक्षन्) रक्षा किया करती हैं । (अध) और मैं (श्येनः) उत्तम, प्रशंसनीय गति वाला और ज्ञानयुक्त होकर घोंसले से बाज के समान वा नगर से प्रयाण करने वाले वीर राजा के समान (जवसा) बड़े वेग वे (निर्-अदीयम्) निकल जाया करता हूं, मैं देहबन्धन को छोड़ कर निकल जाता और और मुक्त हो जाता हूं । राष्ट्रपक्ष में—(एषां देवानां गभ नु सन् एषां विश्वा जनिमानि अवेदम्) इन विजियेच्छुक लोगों के बीच में उनको वश करने के कार्य में रहकर उनके सब सामर्थ्यों को मैं प्राप्त करूं । सैकड़ों दृढ़ नगरी मेरी रक्षा करें मैं वेग से शत्रु पर धावा करूं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ४ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ५ निचृच्छक्वरी ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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