ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वै॒श्वा॒न॒राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ स॒जोषाः॑ क॒था दा॑शेमा॒ग्नये॑ बृ॒हद्भाः। अनू॑नेन बृह॒ता व॒क्षथे॒नोप॑ स्तभायदुप॒मिन्न रोधः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒राय॑ । मी॒ळ्हुषे॑ । स॒ऽजोषाः॑ । क॒था । दा॒शे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । बृ॒हत् । भाः । अनू॑नेन । बृ॒ह॒ता । व॒क्षथे॑न । उप॑ । स्त॒भा॒य॒त् । उ॒प॒ऽमित् । न । रोधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानराय मीळ्हुषे सजोषाः कथा दाशेमाग्नये बृहद्भाः। अनूनेन बृहता वक्षथेनोप स्तभायदुपमिन्न रोधः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानराय। मीळ्हुषे। सऽजोषाः। कथा। दाशेम। अग्नये। बृहत्। भाः। अनूनेन। बृहता। वक्षथेन। उप। स्तभायत्। उपऽमित्। न। रोधः॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - वैश्वानर अग्नि। सर्वनायक की उपासना।
भावार्थ -
जो ( बृहद्भाः ) सूर्य के समान बड़े भारी तेज वा ज्ञानप्रकाश से युक्त ( अनूनेन ) किसी से भी न कम, अति अधिक ( बृहता ) बहुत बड़े ( वक्षथेन ) कार्य भार को उठाने या धारण करने के सामर्थ्य से ( रोधः न ) जलों के तट के समान ( उपमित् ) इस जगत् को स्वयं जानने, बनाने और चलाने हारा होकर ( उप स्तभायत् ) संभालता है उस (वैश्वानराय) समस्त जगत् के सञ्चालक, सब मनुष्यों के नायक राजा और विद्वान् ( मीळहुषे ) सूर्य वा मेघ के तुल्य आनन्द ऐश्वर्य सुखों के वर्ष (अग्नये) अग्नि के तुल्य ज्ञानप्रकाशक, अग्रणी, मार्गदर्शक के लिये हम ( सजोषाः ) समान रूप से प्रीतियुक्त होकर ( कथा दाशेम ) किस प्रकार आत्मसमर्पण करें, करादि दें। दान, मान आदर सत्कार आदि करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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