यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 21
ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः
देवता - विश्वकर्मा देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याऽव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा। शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं वृधा॒नः॥२१॥
स्वर सहित पद पाठया। ते॒। धामा॑नि। प॒र॒माणि॑। या। अ॒व॒मा। या। म॒ध्य॒मा। वि॒श्व॒क॒र्म॒न्निति॑ विश्वऽकर्मन्। उ॒त। इ॒मा। शिक्ष॑। सखि॑भ्य॒ इति॒ सखि॑ऽभ्यः। ह॒विषि॑। स्व॒धा॒व॒ इति॑ स्वधाऽवः। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। त॒न्व᳖म्। वृ॒धा॒नः ॥२१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावः स्वयँयजस्व तन्वँवृधानः ॥
स्वर रहित पद पाठ
या। ते। धामानि। परमाणि। या। अवमा। या। मध्यमा। विश्वकर्मन्निति विश्वऽकर्मन्। उत। इमा। शिक्ष। सखिभ्य इति सखिऽभ्यः। हविषि। स्वधाव इति स्वधाऽवः। स्वयम्। यजस्व। तन्वम्। वृधानः॥२१॥
विषय - प्रार्थनाविषयः
व्याखान -
हे सर्वविधायक (विश्वकर्मन्) विश्वकर्मन्नीश्वर ! (या ते) जो तुम्हारे स्वरचित (परमाणि, या अवमा या मध्यमा) उत्तम, मध्यम, निकृष्ट त्रिविध (धामानि) धाम (लोक) हैं, (उत इमा) उन सब लोकों की (शिक्ष सखिभ्यः) शिक्षा हम आपके सखाओं को करो, यथार्थविद्या होने से सब लोकों में सदा सुखी ही रहें तथा इन लोकों के (हविषि) दान और ग्रहण व्यवहार में हम लोग चतुर हों। हे (स्वधावः) स्वसामर्थ्यादि धारण करनेवाले ! हमारे (तन्वं वृधानः) शरीरादि पदार्थों को आप ही बढ़ानेवाले हैं, (स्वयम् यजस्व) हमारे लिए विद्वानों का सत्कार, सब सज्जनों के सुखादि की सङ्गति, विद्यादि गुणों का दान आप स्वयं करो। आप अपनी उदारता से ही हमको सब सुख दीजिए, किञ्च हम लोग तो आपके प्रसन्न करने में कुछ भी समर्थ नहीं हैं। हम सर्वथा आपके अनुकूल वर्त्तमान भी नहीं कर सकते, परन्तु आप तो अधमोद्धारक हैं, इससे हमको स्वकृपाकटाक्ष से सुखी करें ॥ ३८ ॥
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