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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - जेता माधुच्छ्न्दसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वं व॒लस्य॒ गोम॒तोऽपा॑वरद्रिवो॒ बिल॑म्। त्वां दे॒वा अबि॑भ्युषस्तु॒ज्यमा॑नास आविषुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । व॒लस्य॑ । गोऽम॑तः । अप॑ । अ॒वः॒ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । बिल॑म् । त्वाम् । दे॒वाः । अबि॑भ्युषः । तु॒ज्यमा॑नासः । आ॒वि॒षुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम्। त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। वलस्य। गोऽमतः। अप। अवः। अद्रिऽवः। बिलम्। त्वाम्। देवाः। अबिभ्युषः। तुज्यमानासः। आविषुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि तस्य गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    योऽद्रिवो मेघवानिन्द्रः सूर्य्यलोको गोमतोऽबिभ्युषो बलस्य मेघस्य बिलमपावोऽपवृणोति, त्वां तमिमं तुज्यमानासो देवा दिव्यगुणा भ्रमन्तः पृथिव्यादयो लोका आविषुर्व्याप्नुवन्ति॥५॥

    पदार्थः

    (त्वम्) अयम् (वलस्य) मेघस्य। वल इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (गोमतः) गावः संबद्धा रश्मयो विद्यन्ते यस्य तस्य। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (अप) क्रियायोगे (अवः) दूरीकरोत्युद्घाटयति। अत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसीत्याडभावश्च। (अद्रिवः) बहवोऽद्रयो मेघा विद्यन्ते यस्मिन्सः। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। छन्दसीर इति मतुपो मकारस्य वत्त्वम्। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। (अष्टा०८.३.१) इति नकारस्थाने रुरादेशश्च। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (बिलम्) जलसमूहम्। बिलं भरं भवति बिभर्तेः। (निरु०२.१७) (त्वाम्) तमिमम् (देवाः) दिव्यगुणाः पृथिव्यादयः (अबिभ्युषः) बिभेति यस्मात् स बिभीवान्न बिभीवानबिभीवान् तस्य (तुज्यमानासः) कम्पमानाः स्वां स्वां वसतिमाददानाः (आविषुः) अभितः स्वस्वकक्षां व्याप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। अयं व्याप्त्यर्थस्याऽवधातोः प्रयोगः॥५॥

    भावार्थः

    यथा सूर्य्यः स्वकिरणैर्घनाकारं मेघं छित्वा भूमौ निपातयति, यस्य किरणेषु मेघस्तिष्ठति, यस्याभित आकर्षणेन पृथिव्यादयो लोकाः स्वस्वकक्षायां सुनियमेन भ्रमन्ति, ततोऽयनर्त्वहोरात्रादयो जायन्ते, तथैव सेनापतिना भवितव्यमिति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    (अद्रिवः) जिसमें मेघ विद्यमान है, ऐसा जो सूर्य्यलोक है, वह (गोमतः) जिसमें अपने किरण विद्यमान हैं उस (अबिभ्युषः) भयरहित (बलस्य) मेघ के (बिलम्) जलसमूह को (अपावः) अलग-अलग कर देता है, (त्वाम्) इस सूर्य्य को (तुज्यमानासः) अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए (देवाः) पृथिवी आदिलोक (आविषुः) विशेष करके प्राप्त होते हैं॥५॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य्यलोक अपनी किरणों से मेघ के कठिन-कठिन बद्दलों को छिन्न-भिन्न करके भूमि पर गिराता हुआ जल की वर्षा करता है, क्योंकि यह मेघ उसकी किरणों में ही स्थित रहता, तथा इसके चारों ओर आकर्षण अर्थात् खींचने के गुणों से पृथिवी आदि लोक अपनी-अपनी कक्षा में उत्तम-उत्तम नियम से घूमते हैं, इसी से समय के विभाग जो उत्तरायण, दक्षिणायन तथा ऋतु, मास, पक्ष, दिन, घड़ी, पल आदि हो जाते हैं, वैसे ही गुणवाला सेनापति होना उचित है॥५॥

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यो अद्रिवो मेघवान् इन्द्रः सूर्य्यलोको गोमतः अबिभ्युषो बलस्य मेघस्य बिलम् अप अवो अपवृणोति त्वां तम् इमं तुज्यमानासः देवा दिव्यगुणा भ्रमन्तः पृथिवी आदयो लोका आविषु वि आप्नुवन्ति॥५॥

    पदार्थ

    (यो)=जो, (अद्रिवः) बहवोऽद्रयो मेघा विद्यन्ते यस्मिन्सः=जिसमें बहुत मेघ विद्यमान हैं, ऐसा सूर्य्यलोक, (मेघवान्)=मेघों वाला, (इन्द्रः) सूर्य्य, (सूर्य्यलोकः)=सूर्य्यलोक, (गोमतः) गावः सर्व रश्मयो विद्यन्ते यस्य तस्य=जिसमें किरणें विद्यमान हैं, उसका, (अबिभ्युषः) बिभेति यस्मात् स बिभीवान्न बिभीवानबिभीवान् तस्य=भय रहित, (बलस्य)=बल का, (मेघस्य)=मेघ का, (बिलम्)=जलसमूहम्=जल समूह को, (अप) क्रियायोगे=क्रिया के अनुसार उपसर्ग, (अवः) दूरीकरोत्युद्धाटयति अपावः (अप+अवः)=अलग अलग कर देता है, (अपवृणोति) अप+वृणोति=अलग अलग करना, (त्वा-तम्)=आपको, (इमम्)=यह, (तुज्यमानासः) कम्पमानाः स्वां स्वां वसतिमाददानाः= अपनी अपनी कक्षा में रह कर भ्रमण करते हुए , (देवा)=देवगण, (दिव्यगुणाः)=दिव्य गुण, (भ्रमन्तः)=भ्रमण करते हुए, (पृथिवी)=पृथिवी, (आदयः)=आदि, (लोकाः)=लोक, (आविषुः) अभितः स्वकक्षां व्याप्नुवन्ति=हर ओर से अपनी कक्षा में प्राप्त होते हैं, (वि)=विशेष रूप से, (आप्नुवन्ति)=प्राप्त होते हैं॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे सूर्य्यलोक अपनी किरणों से घने मेघ को  छिन्न-भिन्न करके भूमि पर गिराता है। इस की किरणों से  मेघ स्थित रहता है,  इसके चारों ओर आकर्षण से पृथिवी आदि लोक अपनी-अपनी कक्षा में उत्तम नियम से घूमते हैं। उसी से समय के विभाग जो उत्तरायण, दक्षिणायन तथा ऋतु, मास, पक्ष, दिन, घड़ी, पल आदि हो जाते हैं, वैसे ही गुणवाला सेनापति होना उचित है॥५॥.

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यो) जो (मेघवान्) बहुत मेघों वाला (इन्द्रः) सूर्य्य (सूर्य्यलोकः) सूर्य्यलोक (गोमतः) जिसमें किरणें विद्यमान हैं, उसके (अबिभ्युषः) भयरहित (बलस्य) बल और (मेघस्य) मेघ के (बिलम्) जल समूह को (अपवृणोति) अलग अलग कर देता है। (त्वा) आपको (इमम्) यह (तुज्यमानासः) अपनी-अपनी कक्षा में रह कर भ्रमण करते हुए  (दिव्यगुणाः) दिव्यगुण से युक्त (देवा) देवगण (भ्रमन्तः) भ्रमण करते हुए (पृथिवी) पृथिवी (आदयः) आदि (लोकाः) लोकों में (वि) विशेष रूप से (आविषुः) हर ओर से अपनी कक्षा में (आप्नुवन्ति) प्राप्त होते हैं॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) अयम् (वलस्य) मेघस्य। वल इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (गोमतः) गावः संबद्धा रश्मयो विद्यन्ते यस्य तस्य। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (अप) क्रियायोगे (अवः) दूरीकरोत्युद्घाटयति। अत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसीत्याडभावश्च। (अद्रिवः) बहवोऽद्रयो मेघा विद्यन्ते यस्मिन्सः। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। छन्दसीर इति मतुपो मकारस्य वत्त्वम्। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। (अष्टा०८.३.१) इति नकारस्थाने रुरादेशश्च। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (बिलम्) जलसमूहम्। बिलं भरं भवति बिभर्तेः। (निरु०२.१७) (त्वाम्) तमिमम् (देवाः) दिव्यगुणाः पृथिव्यादयः (अबिभ्युषः) बिभेति यस्मात् स बिभीवान्न बिभीवानबिभीवान् तस्य (तुज्यमानासः) कम्पमानाः स्वां स्वां वसतिमाददानाः (आविषुः) अभितः स्वस्वकक्षां व्याप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। अयं व्याप्त्यर्थस्याऽवधातोः प्रयोगः॥५॥
    विषयः- पुनरपि तस्य गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- योऽद्रिवो मेघवानिन्द्रः सूर्य्यलोको गोमतोऽबिभ्युषो बलस्य मेघस्य बिलमपावोऽपवृणोति, त्वां तमिमं तुज्यमानासो देवा दिव्यगुणा भ्रमन्तः पृथिव्यादयो लोका आविषुर्व्याप्नुवन्ति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा सूर्य्यः स्वकिरणैर्घनाकारं मेघं छित्वा भूमौ निपातयति, यस्य किरणेषु मेघस्तिष्ठति, यस्याभित आकर्षणेन पृथिव्यादयो लोकाः स्वस्वकक्षायां सुनियमेन भ्रमन्ति, ततोऽयनर्त्वहोरात्रादयो जायन्ते, तथैव सेनापतिना भवितव्यमिति॥५॥

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    विषय

    ' वल ' असुर का संहार

    पदार्थ

    १. हृदय - रूप गुफा वाह बिल में प्रभु का अधिष्ठान होने से वहां सारा ज्ञान विद्यमान है । इस हृदय गुफा में यह ज्ञान की रश्मिया ही ' गावः ' गौवें हैं । यह बिल गोमान् है । इस पर कामवासना का एक पर्दा सा पड़ जाया करता है   , यह 'वल' [veil] कहलाता है । गत मंत्र का " पुरुष्टुत " इस पर्दे को दूर कर देता है और उसके दूर होते ही ज्ञान - रश्मियों के प्रकाश से हमारा जीवन जगमगा उठता है । उस जीवन में देवताओं का निवास होता है मंत्र में कहते हैं कि - हे (अद्रिवः) वज्रवाले (अद्रि - वज्र) आदरणीय जीव  ! (त्वम्) तू (गोमतः) इस ज्ञान की रश्मिओं वाले (वलस्य) ज्ञान पर पर्दे के रूप में पड़े हुए काम रूप वृत्र को  (बिलम्) इस हृदय रूप गुहा को   , जिसपर की कुछ देर के लिए इस काम [वल] ने ही अधिकार कर लिया है । (अपावः) वज्र के प्रहार से काम को नष्ट करके खोल डालता है । "क्रियाशील जीवन" ही वज्र है   , इस वज्र से इंद्र - जीव काम को नष्ट कर डालता है । इस बिल से खुलते ही   , कामरूप पर्दे के हटते ही ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है और   ,

    २. (त्वाम्) - इस बल नामक असुर का नाश करनेवाले को (देवाः) - सब दिव्यवृत्तियाँ (आविषुः) - व्याप्त कर लेती हैं   , तेरा जीवन दिव्यतामय हो जाता है । ये देव (अविभ्युषः) - भय से रहित हैं। दिव्यवृत्तियों का प्रारंभ " अभय " से ही होता है । ये देव (तुज्यमानसः) - (to guard   , to protect) सदा रक्षित किए जाने योग्य हैं । असुरों के सतत आक्रमण से इनके नाश का भय बना ही रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ' वल ' ज्ञान के आवरणभूत काम का संहार कर हृदय को ज्ञान रश्मिओं से द्योतित करें और जीवन को दिव्यवृत्तियों से व्याप्त करें । इस असुर का संहार करके ही हम सब ' जेता ' बनते हैं । 

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अद्रिवः ) वज्रवन् ! अखण्ड वीर्यवन् ! राजन् ! (गोमतः वलस्य ) सूर्य जिस प्रकार किरणों को रोकने वाले मेघ के ( बिलम् ) जल को ( अपावः ) छिन्न-भिन्न कर देता है, उसी प्रकार तू भी (गोमतः वलस्य) भूमि को रोक लेने वाले, नगर को घेर लेने वाले शत्रु को (अप अवः ) दूर कर दे, छिन्न-भिन्न कर । ( अबिभ्युषः ) भयरहित होकर ( तुज्यमानासः ) अपना अपना आश्रय पाकर तेरे से नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त करके ( देवाः ) विद्वान् पुरुष, युद्ध विजयी सैनिकगण भी ( त्वां आविपुः) तुझे प्राप्त होते हैं । तेरा आश्रय लेते हैं । अध्यात्म में—( गोमतः वलस्य) इन्द्रियों के निरोधक एवं ज्ञानवाणियों के निरोधक अज्ञान के ( बिलम् ) भार या बाधक बल को हे आत्मन् ! प्राण ! तू नाश करता है । ये (देवाः) विषयों के प्रकाशक देव, इन्द्रियगण निर्भय होकर, पीड़ित होकर, श्रान्त होकर तुझे ही प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — ८ जेता माधुच्छन्दस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सूर्यलोक आपल्या किरणांनी मेघांना छिन्नभिन्न करून भूमीवर वृष्टी करवितो, त्याच्या किरणात मेघ स्थित असतात. चारही बाजूंनी सूर्याच्या आकर्षण अर्थात खेचण्याच्या गुणामुळे पृथ्वी इत्यादी लोक आपापल्या कक्षेत उत्तमरीत्या फिरतात, त्यामुळेच काळाचे विभाग उत्तरायण व दक्षिणायन तसेच ऋतू, मास, पक्ष, दिन, क्षण, पळ इत्यादी होतात. तशाच गुणांचा सेनापती असावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, blazing as the sun, wielder of the clouds, you break open the water-hold of the clouds. The devas, planets, seekers of the lord of light and centre-home, moved round in orbit, hold on to their place in the solar family.

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    Subject of the mantra

    Yet again, in this mantra the qualities of Sun have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yo)=That, (meghavān)=very cloudy, (indraḥ)=sun, (sūryyalokaḥ)= Sun world, (gomataḥ= in which the rays are present, of that, (abibhyuṣaḥ)=fearless, (balasya)=of force, (meghasya)=of cloud, (bilam)= the group of water bodies, (apavṛṇoti)= separates, (tvā)=to you, (imam)=this, (tujyamānāsaḥ)= traveling in their own orbit, (divyaguṇāḥ)=having divine virtues, (devā)=deities, (bhramantaḥ)=while travelling, (pṛthivī)=earth, (ādayaḥ)=etc. (lokāḥ)=worlds, (vi)=specially, (āviṣuḥ)=from everywhere in own orbit, (āpnuvanti)=receive.

    English Translation (K.K.V.)

    That Sun in the Sun-world has many clouds, in which the rays are present. This separates the group of water bodies and fearless force of clouds. You receive these deities having divine virtues, while traveling, especially in their own orbits in the earth etc. worlds are.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the Sun-rays scatter a dense cloud with its rays and drop it on the ground. By its rays, the cloud remains stable, with the attraction around it, like the earth et cetera. These worlds move in their respective orbits according to the best rules. By that only the time the divisions occurs which causes Uttarayan, Dakshinayan, season, months, paksh (Shukl and Krishna), day, clock, and moment et cetera. In the same way it is appropriate to be a virtuous commander.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When the sun opens the cave of the clouds covering his rays, the earth and other worlds rotating separate the mass of water. This sun is attained by trembling and rotating earth etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    अद्विरिति मेघनामसु पठितम् ( निघ० १.१०) = Cloud (बिलम्) जलसमूहम् -बिलं भरं भवति विभेतः (निरु० २.१७)(तुज्यमानासः ) कम्पमाना: तुज-हिंसाबलादाननिकेतनेषु ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun breaks into pieces the solid cloud by his rays and makes it fall down upon the earth. It is by the gravitation of the sun that the earth and other worlds regularly rotate in their circumference by which are made the season and day and night etc. in the same way, the commander of an army should behave.

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