ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वे राय॑ इन्द्र तो॒शत॑माः प्रणे॒तार॒: कस्य॑ चिदृता॒योः। ते षु णो॑ म॒रुतो॑ मृळयन्तु॒ ये स्मा॑ पु॒रा गा॑तु॒यन्ती॑व दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । रायः॑ । इ॒न्द्र॒ । तो॒शऽत॑माः । प्र॒ऽने॒तारः॑ । कस्य॑ । चि॒त् । ऋ॒त॒ऽयोः । ते । सु । नः॒ । म॒रुतः॑ । मृ॒ळ॒य॒न्तु॒ । ये । स्म॒ । पु॒रा । गा॒तु॒यन्ति॑ऽइव । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे राय इन्द्र तोशतमाः प्रणेतार: कस्य चिदृतायोः। ते षु णो मरुतो मृळयन्तु ये स्मा पुरा गातुयन्तीव देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति। रायः। इन्द्र। तोशऽतमाः। प्रऽनेतारः। कस्य। चित्। ऋतऽयोः। ते। सु। नः। मरुतः। मृळयन्तु। ये। स्म। पुरा। गातुयन्तिऽइव। देवाः ॥ १.१६९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र ये कस्य चिदृतायोः प्रणेतारस्तोशतमा मरुतो देवास्ते सति रायः प्रापय्य नः सुमृळयन्तु पुरा गातुयन्तीव प्रयतन्ते ते स्म रक्षितारः स्युः ॥ ५ ॥
पदार्थः
(त्वे) त्वयि सहायकारिणि सति (रायः) धनानि (इन्द्र) दातः (तोशतमाः) अतिशयेन प्रीताः सन्तः (प्रणेतारः) प्रसाधकाः (कस्य) (चित्) (ऋतायोः) आत्मन ऋतं सत्यमिच्छुः (ते) (सु) (नः) अस्मान् (मरुतः) वायुविद्यावेत्तारः (मृळयन्तु) सुखयन्तु (ये) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पुरा) पूर्वम् (गातुयन्तीव) आत्मनो गातुं पृथिवीमिच्छन्तीव (देवाः) विद्वांसः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये वायुविद्यादिवेत्तारः परोपकारविद्यादानप्रियाः पृथिवीवत् सर्वान् पुरुषार्थे धरन्ति ते सर्वदा सुखिनो भवन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) देनेवाले ! (ये) जो (कस्य, चित्) किसी (ऋतायोः) अपने को सत्य की चाहना करनेवाले (प्रणेतारैः) उत्तम साधक (तोशतमाः) और अतीव प्रसन्नचित्त होते हुए (मरुतः) पवनविद्या को जाननेवाले (देवाः) विद्वान् जन (त्वे) तुम्हारे रक्षक होते (रायः) धनों की प्राप्ति करा (नः) हम लोगों को (सु, मृळयन्तु) अच्छे प्रकार सुखी करें वा (पुरा) पूर्व (गातुयन्तीव) अपने को पृथिवी चाहते हुए प्रयत्न करते हैं (ते, स्म) वे ही रक्षा करनेवाले हों ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो वायुविद्या के जाननेवाले परोपकार और विद्यादान देने में प्रसन्नचित्त पृथिवी के समान सब प्राणियों को पुरुषार्थ में धारण करते हैं, वे सर्वदा सुखी होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
धन+सत्संग
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमात्मन्! (त्वे रायः) = आपके पास वे धन हैं जो (तोशतमा:) = [तुश निबर्हणे] वासनाओं का संहार करनेवाले हैं। वे धन (कस्य चित्) = आनन्दमय स्वभाववाले (ऋतायोः) = यज्ञशील पुरुष को (प्रणेतारः) = आगे ले-चलनेवाले हैं अर्थात् ये धन उसकी चिन्ताओं को नष्ट करके उसे सुखी करते हैं, साथ ही यज्ञों को करने के लिए सक्षम बनाते हैं । ये ही धन ऋतायु से भिन्न किसी पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं तो उसे शराब-मांस में प्रवृत्त कर देते हैं। ये धन प्रायः अन्यायमार्गों से ही अर्जित किये हुए होते हैं । २. धन के दुष्परिणामों का ध्यान करते हुए लोग प्रार्थना करते हैं कि (ते) = वे (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष अपने उत्तम उपदेशों के द्वारा (नः) = हमें (सुमृळयन्तु) = अच्छी प्रकार सुखी करें (ये) = जो कि (स्म) = निश्चय से (पुरा) = हमसे पूर्व (देवा:) = देववृत्ति के बनकर सदा (गातूयन्ति इव) = मार्ग पर चलने की ही कामना करते हैं [इव एव], अर्थात् सदा यज्ञों के प्रति जाने की ही इच्छा रखते हैं। इनके सम्पर्क में आने से हम भी धनों का विनियोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में ही करेंगे और धन के दुष्परिणामों से बचे रहेंगे। गत मन्त्र के अनुसार धन का मुख्य विनियोग तो वस्तुतः दान ही है। यह समझ लेने पर हम अपनी आवश्यकताओं को व्यर्थ में न बढ़ाते हुए अपने को इस संसार समुद्र में डुबा नहीं लेते।
भावार्थ
भावार्थ- हमें सदा सुमार्ग पर चलनेवाले प्राणसाधकों का संग प्राप्त हो । उनकी प्रेरणा से हम भी धनों का विनियोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में करनेवाले बनें और इस प्रकार वैषयिक वृत्तियों से बचे रहें ।
विषय
मेघवत् प्रभु की उदारता ।
भावार्थ
(रायः कस्य चित् ऋतायोः तोशतमाः प्रणेतारः) जिस प्रकार दान योग्य मेघ के जल, जल के इच्छुक किसी भी किसान को खूब प्रसन्न करते और उसको खेत के काम में लगाने वाले होते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! दानशील पुरुष ! ( त्वे रायः ) तेरे ऐश्वर्य ( ऋतायोः ) सत्य और धन की इच्छा करने वाले के लिये ( तोशतमाः ) अति सुख देने वाले और उसको ( प्र नेतारः ) उत्तम कार्य में लगने वाले हों । इसी प्रकार हे आचार्य ! ( त्वे रायः ) तेरे देने योग्य ज्ञानोपदेश ( ऋतायोः ) वेद और सत्य ज्ञान के इच्छुक शिष्य को ( तोशतमाः ) अज्ञान को अच्छी प्रकार नाश करने और हृदय को सुखी करने वाले और उसे सन्मार्ग में ले जाने वाले हैं। ( ये ) जो ( देवाः ) विद्वान् जन, या विद्याभिलाषी जन ( पुरा ) पहले ( गातूयन्ति इव स्म ) पृथिवी के समान सब आश्रयों के आश्रयभूत ब्रह्मचर्य, सन्मार्ग और गान योग्य वेद राशि के अभ्यास की इच्छा करते हैं ( ते ) वे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुष ( नः सु मृडयन्तु ) हमें खूब सुखी करें। वायुपक्ष में—जो वायु पृथिवी की ओर हैं वे हमें सुखी करें। इति अष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे वायूविद्येचे जाणकार, परोपकारी, विद्यादानात प्रसन्न, पृथ्वीप्रमाणे सर्व प्राण्यांना पुरुषार्थाने धारण करणारे असतात, ते सदैव सुखी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, in you and with you abide wealths and virtues of the world which are most satisfying saviours and redeemers, which help any lover of truth, piety and yajnakeen to cross the oceans of existence to liberation. May the Maruts give us that peace and wealth. May the ancient and eternal nobilities eager to rise to divinity guide and bless us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The energetic persons are adored.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O INDRA (liberal minded Commander of the Army)! Let the truthful aeronautical scientists help us in the the acquisition of wealth. You be pleased and give us happiness under your guidance. They always endeavor like the wise persons and desire to rule over the earth and bring about the welfare of its inhabitants.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The scientists of air and other elements who are lovers of benevolence knowledge and donation. They uphold all with their industriousness, and thus make the human kind to enjoy happiness.
Foot Notes
(तोशतमा:) अतिशयेन प्रीता: सन्तः = Being very much pleased. (गातुयन्तीव) आत्मनो गातुं पृथिवीम् इच्छन्तीव = Like the persons desiring the rule or welfare of the earth.
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