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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स घा॑ वी॒रो न रि॑ष्यति॒ यमिन्द्रो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। सोमो॑ हि॒नोति॒ मर्त्य॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । घ॒ । वी॒रः । न । रि॒ष्य॒ति॒ । यम् । इन्द्रः॑ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । सोमः॑ । हि॒नोति॑ । मर्त्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः। सोमो हिनोति मर्त्यम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। घ। वीरः। न। रिष्यति। यम्। इन्द्रः। ब्रह्मणः। पतिः। सोमः। हिनोति। मर्त्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रादिकृत्यान्युपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    इन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः सोमश्च यं मर्त्यं हिनोति स वीरो न घ रिष्यति नैव विनश्यति॥४॥

    पदार्थः

    (सः) इन्द्रो बृहस्पतिः सोमश्च (घ) एव। ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (वीरः) अजति व्याप्नोति शत्रुबलानि यः (न) निषेधार्थे (रिष्यति) नश्यति (यम्) प्राणिनम् (इन्द्रः) वायुः (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पतिः) पालयिता परमेश्वरः (सोमः) सोमलतादिसमूहरसः (हिनोति) वर्धयति (मर्त्यम्) मनुष्यम्॥४॥

    भावार्थः

    ये वायुविद्युत्सूर्य्यसोमौषधगुणान् सङ्गृह्य कार्य्याणि साधयन्ति न ते खलु नष्टसुखा भवन्तीति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्रादिकों के कार्य्यों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    उक्त इन्द्र (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्ड का पालन करनेवाला जगदीश्वर और (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों का रससमूह (यम्) जिस (मर्त्यम्) मनुष्य आदि प्राणी को (हिनोति) उन्नतियुक्त करते हैं, (सः) वह (वीरः) शत्रुओं का जीतनेवाला वीर पुरुष (न घ रिष्यति) निश्चय है कि वह विनाश को प्राप्त कभी नहीं होता॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वायु, विद्युत्, सूर्य्य और सोम आदि ओषधियों के गुणों को ग्रहण करके अपने कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे कभी दुखी नहीं होते॥४॥

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    विषय

    इस मन्त्र में इन्द्रादिकों के कार्य्यों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    इन्द्रः (ब्रह्मणः पतिः) सोमः च यं मर्त्यं  हिनोति  स वीरः न घ रिष्यति न एव विनश्यति ॥४॥

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ब्रह्मणः पतिः= ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला परमेश्वर, (सोमः) सोमलतादिसमूहरसः=सोमलता आदि ओषधियों का रस,  (च)=भी, (यम्)=प्राणिनम्=प्राणि को, (मर्त्यम्)=मनुष्य,  (हिनोति) वर्धयति=बढ़ाता है, (सः)=वह, (वीरः) अजति व्याप्नोति शत्रुबलानि यः=शत्रों के बल को जीतने और व्याप्त होने वाला,  (न)=नहीं, (घ)=ही, (रिष्यति) नश्यति=नष्ट हो जाता है, (न)=नहीं, (एव)=ही, (विनश्यति)=नष्ट हो जाता है ॥४॥  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य वायु, विद्युत्, सूर्य्य और सोम आदि ओषधियों के गुणों को ग्रहण करके अपने कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे कभी दुखी नहीं होते॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (इन्द्रः) ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला परमेश्वर है (च) और   (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों का रस (यम्) जिस प्राणि और (मर्त्यम्) मनुष्य को  (हिनोति) बढ़ाता है।  (सः) वह  (वीरः) शत्रुओं के बल को जीतने और व्याप्त होने वाला  है और (न) न  (घ) ही (रिष्यति) नष्ट होता है। 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) इन्द्रो बृहस्पतिः सोमश्च (घ) एव। ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (वीरः) अजति व्याप्नोति शत्रुबलानि यः (न) निषेधार्थे (रिष्यति) नश्यति (यम्) प्राणिनम् (इन्द्रः) वायुः (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पतिः) पालयिता परमेश्वरः (सोमः) सोमलतादिसमूहरसः (हिनोति) वर्धयति (मर्त्यम्) मनुष्यम्॥४॥
    विषयः- अथेन्द्रादिकृत्यान्युपदिश्यन्ते।  

    अन्वयः- इन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः सोमश्च यं मर्त्यं हिनोति स वीरो न घ रिष्यति नैव विनश्यति ॥महर्षिकृत:॥४॥                

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये वायुविद्युत्सूर्य्यसोमौषधगुणान् सङ्गृह्य कार्य्याणि साधयन्ति न ते खलु नष्टसुखा भवन्तीति॥४॥

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    विषय

    इन्द्र , ब्रह्मणस्पति , सोम [आचार्य]

    पदार्थ

    १. वस्तुतः (सः) - वह (वीरः) - वीर विद्यार्थी (घा) - निश्चय से (न रिष्यति) - कभी हिंसित नहीं होता (यम्) - जिस (मर्त्यम्) - मरणधर्मा पुरुष को (इन्द्रः) - इन्द्र , (ब्रह्मणस्पतिः) - ज्ञान का स्वामी तथा (सोमः) - सोम (हिनोति) - बढ़ाता है । 

    २. सामान्यतः एक विद्यार्थी का अपरिपक्व मन प्रभाव को शीघ्र ग्रहण करनेवाला होता है । वह किसी भी बात से प्रभावित हो सकता है । कुसंग में फंसकर वह वैषयिक भावों से शीघ्र आक्रान्त हो जाता है , अतः उसे यहाँ (मर्त्यः) - मर जानेवाला कहा है , परन्तु यही विद्यार्थी जब जितेन्द्रिय [इन्द्र] , ज्ञानी [ब्रह्मणस्पति] व नातिमानी - निरभिमानी [सोम] आचार्य के सम्पर्क में आता है तब यह दूषित विचारों का शिकार नहीं होता । आचार्य इसके ज्ञान को इतना बढ़ा देते हैं कि वह कुविचारों के प्रभाव से ऊपर उठ जाता है , अवाञ्छनीय भावों से लड़ने के लिए उसमें पर्याप्त वीरता उत्पन्न हो जाती है । 

    ३. आचार्य का सर्वप्रथम गुण 'इन्द्र' शब्द से व्यक्त हो रहा है - वह पूर्ण जितेन्द्रिय है , वह इन्द्रियों का दास नहीं , उसे किसी विषय का चस्का नहीं लगा हुआ , आसुरी वृत्तियों का संहार करके वह दैवी सम्पति का स्वामी बना है । 

    ४. आचार्य का द्वितीय गुण 'ब्रह्मणस्पति' शब्द के साथ व्यक्त हो रहा है । वह ज्ञान का पति है । ज्ञान का पति होकर ही तो वह विद्यार्थी को ज्ञान दे पाता है । 

    ५. उसका तीसरा महत्वपूर्ण गुण 'सोम' शब्द से व्यक्त किया जा रहा है । वह जितेन्द्रिय व ज्ञानी बनकर अत्यन्त सौम्य है । उसमें विनीतता है । यह विनीतता ही तो दैवी सम्पत्ति की पराकाष्ठा है । दैवी सम्पत् की समाप्ति 'नातिमानिता' पर ही है । जितेन्द्रियता के द्वारा वह ज्ञानी बनता है , ज्ञान को प्राप्त करके विनीत होता है । जितेन्द्रियता ज्ञान का साधन है और विनीतता ज्ञान का परिणाम । इस आचार्य के शिक्षण में विद्यार्थी वीर बनता है और हिंसित नहीं होता । 

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रिय , ज्ञानी , विनीत आचार्य विद्यार्थी को वीर व हिंसित न होनेवाला बनाता है । 

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    विषय

    राजा

    भावार्थ

    ( यम् ) जिस ( मर्त्यम् ) पुरुष को (इन्द्रः) वायु, प्राणवायु (सोमः) सोमलता आदि ओषधिसमूह और (ब्रह्मणः पतिः) वेद का पालक विद्वान् और ब्रह्माण्ड का स्वामी परमेश्वर ( हिनोति ) बढ़ाते हैं ( सः घ ) वह ( वीरः ) शत्रुबलों को तितरवितर करने में समर्थ वीर पुरुष (न रिष्यति ) कभी दुःख नहीं पाता, कभी नष्ट नहीं होता । अथवा—जिस प्रजाजन को ( इन्द्रः ) शत्रुनाशक सेनापति, ( ब्रह्मणस्पतिः ) वेदज्ञ विद्वान् और (सोमः) ऐश्वर्यवान् राजा बढ़ाते हैं वह नष्ट नहीं होता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि मेधातिथिः काण्वः । देवता—१-३ ब्रह्मणस्पतिः । ४ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च । ५ बृहस्पतिदक्षिणे । ६—८ सदसस्पतिः । ९ सदस्स पतिर्नाराशंसोवा गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे वायू, विद्युत, सूर्य व सोम इत्यादींच्या औषधी गुणांना ग्रहण करून आपले कार्य सिद्ध करतात ती कधी दुःखी होत नाहीत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Surely that brave man never suffers any hurt or injury whom Indra, lord giver of honour, Brahmanaspati, lord omniscient of the universe, and Soma, lord of peace, beauty and joy initiate and call on the way to action and honour.

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    Subject of the mantra

    In this mantra, deeds of Indra etc. have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (indraḥ)= maintainer of universe, (ca)=and, (somaḥ)=sap of creeper Soma etc. herbs, (yam)=which living being, (martyam)=man, (hinoti)=promotes, (saḥ)=He (God), (vīraḥ)=conquering of enemies strength and is about to encircle, (na+gha)= neither, (riṣyati)=gets destroyed.

    English Translation (K.K.V.)

    God is the maintainer of the universe and the juice of herbal medicines like Soma creeper, which promotes the creature and man. He is the one who conquers and encircles the forces of the enemies and neither gets destroyed.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those, who accomplish their tasks by imbibing the qualities of Vāyu (air), Vidyut (electricity or thunder), Sūryya (Sun) and Soma (Soma herb) etc., they are never unhappy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the duties of Indra etc. are taught-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The heroic person whom God-the Lord of the world, air or sun and the Juice of Soma and other plants or creepers protect, never perishes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रः) वायुः = Air (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्डस्य पतिः पालयिता परमेश्वरः (रिष्यति) नश्यति = God the Protector of the world.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who accomplish their work having learnt the properties of the air, electricity, sun, Soma and other creepers do not lose happiness. There is no end to their happiness.

    Translator's Notes

    For the meaning of the word Indra as air, we have already quoted from the Shatapath 14.2.2.6. अयं वा इन्द्रो योऽयं (वात :) पवते ॥ i. e. The air is called Indra. यो वै वायुः स इन्द्रो इन्द्रः स वायु: (शत० ४. १.३.९) These passages do not leave the least shadow of doubt on the mind of an impartial person that by Indra is also meant air. रिष्यति ( Rishyati ) is from रिप-हिंसायाम् perishes.

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