ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रवायू
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्र॑वायू इ॒मे सु॒ता उप॒ प्रयो॑भि॒रा ग॑तम्। इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑वायू॒ इति॑ । इ॒मे । सु॒ताः । उप॑ । प्रयः॑ऽभिः॒ । आ । ग॒त॒म् । इन्द॑वः । वाम् । उ॒शन्ति॑ । हि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रवायू इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम्। इन्दवो वामुशन्ति हि॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रवायू इति। इमे। सुताः। उप। प्रयःऽभिः। आ। गतम्। इन्दवः। वाम्। उशन्ति। हि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथोक्थप्रकाशितपदार्थानां वृद्धिरक्षणनिमित्तमुपदिश्यते।
अन्वयः
इमे सुता इन्दवो हि यतो वान्तौ सहचारिणाविन्द्रवायू प्रकाशन्ते तौ चोपागतमुपागच्छतस्ततः प्रयोभिरन्नादिभिः पदार्थैः सह सर्वे प्राणिनः सुखान्युशन्ति कामयन्ते॥४॥
पदार्थः
(इन्द्रवायू) इमौ प्रत्यक्षौ सूर्य्यपवनौ। इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृह्ळानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑॥(ऋ०८.१४.९) यथेन्द्रेण सूर्य्यलोकेन प्रकाशमानाः किरणा धृताः, एवं च स्वाकर्षणशक्त्या पृथिव्यादीनि भूतानि दृढानि पुष्टानि स्थिराणि कृत्वा दृंहितानि धारितानि सन्ति। (न पराणुदे) अतो नैव स्वस्वकक्षां विहायेतस्ततो भ्रमणाय समर्थानि भवन्ति। इ॒मे चि॑दिन्द्र॒ रोद॑सी अपा॒रे यत्सं॑गृ॒भ्णा म॑घवन् का॒शिरित्ते॑। (ऋ०३.३०.५) इमे चिदिन्द्र रोदसी रोधसी द्यावापृथिव्यौ विरोधनाद्रोधः (कूलं निरुणद्धि स्रोतः) कूलं रुजतेर्विपरीताल्लोष्टोऽविपर्य्ययेणापारे दूरपारे यत्संगृभ्णासि मघवन् काशिस्ते महान्। अह॒स्तमि॑न्द्र॒ संपि॑ण॒क्कुणा॑रुम्। (ऋ०३.३०.८) अहस्तमिन्द्र कृत्वा संपिण्ढि परिक्वणनं मेघम्। (निरु०६.१) यतोऽयं सूर्य्यलोको भूमिप्रकाशौ धारितवानस्ति, अत एव पृथिव्यादीनां निरोधं कुर्वन् पृथिव्यां मेघस्य च कूलं स्रोतश्चाकर्षणेन निरुणद्धि। यथा बाहुवेगेनाकाशे प्रतिक्षिप्तो लोष्ठो मृत्तिकाखण्डः पुनर्विपर्य्ययेणाकर्षणाद् भूमिमेवागच्छति, एवं दूरे स्थितानपि पृथिव्यादिलोकान् सूर्य्य एव धारयति। सोऽयं सूर्य्यस्य महानाकर्षः प्रकाशश्चास्ति। तथा वृष्टिनिमित्तोऽप्ययमेवास्ति। इन्द्रो वै त्वष्टा। (ऐ०ब्रा०६.१०) सूर्य्यो भूम्यादिस्थस्य रसस्य मेघस्य च छेत्तास्ति। एतानि भौतिकवायुविषयाणि ‘वायवायाहि०’ इति मन्त्रप्रोक्तानि प्रमाणान्यत्रापि ग्राह्याणि। (इमे सुताः) प्रत्यक्षभूताः पदार्थाः (उप) समीपम् (प्रयोभिः) तृप्तिकरैरन्नादिभिः पदार्थैः सह। प्रीञ् तर्पणे कान्तौ चेत्यस्मादौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (आगतम्) आगच्छतः। लोट्मध्यमद्विवचनम्। बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। अनुदात्तोपदेशेत्यनुनासिकलोपः। (इन्दवः) जलानि क्रियामया यज्ञाः प्राप्तव्या भोगाश्च। इन्दुरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) यज्ञनामसु। (निघं०३.१७) पदनामसु च। (निघं०५.४) (वाम्) तौ (उशन्ति) प्रकाशन्ते (हि) यतः॥४॥
भावार्थः
अस्मिन्मन्त्रे प्राप्यप्रापकपदार्थानां प्रकाशः कृत इति॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
अब जो स्तोत्रों से प्रकाशित पदार्थ हैं, उनकी वृद्धि और रक्षा के निमित्त का अगले मन्त्र में उपदेश किया है-
पदार्थ
(इमे) ये प्रत्यक्ष (सुताः) उत्पन्न हुए पदार्थ (इन्दवः) जो जल, क्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग पदार्थ हैं, वे (हि) जिस कारण (वाम्) उन दोनों (इन्द्रवायू) सूर्य्य और पवन को (उशन्ति) प्रकाशित करते हैं, और वे सूर्य तथा पवन (उपागतम्) समीप प्राप्त होते हैं, इसी कारण (प्रयोभिः) तृप्ति करानेवाले अन्नादि पदार्थों के साथ सब प्राणी सुख की कामना करते हैं। यहाँ इन्द्र शब्द के भौतिक अर्थ के लिये ऋग्वेद के मन्त्र का प्रमाण दिखलाते हैं-(इन्द्रेण०) सूर्य्यलोक ने अपनी प्रकाशमान किरण तथा पृथिवी आदि लोक अपने आकर्षण अर्थात् पदार्थ खैंचने के सामर्थ्य से पुष्टता के साथ स्थिर करके धारण किये हैं कि जिससे वे न पराणुदे अपने-अपने भ्रमणचक्र अर्थात् घूमने के मार्ग को छोड़कर इधर-उधर हटके नहीं जा सकते हैं। (इमे चिदिन्द्र०) सूर्य्य लोक भूमि आदि लोकों को प्रकाश के धारण करने के हेतु से उनका रोकनेवाला है अर्थात् वह अपनी खैंचने की शक्ति से पृथिवी के किनारे और मेघ के जल के स्रोत को रोक रहा है। जैसे आकाश के बीच में फेंका हुआ मिट्टी का डेला पृथिवी की आकर्षण शक्ति से पृथिवी पर ही लौटकर आ पड़ता है, इसी प्रकार दूर भी ठहरे हुए पृथिवी आदि लोकों को सूर्य्य ही ने आकर्षण शक्ति की खैंच से धारण कर रखा है। इससे यही सूर्य्य बड़ा भारी आकर्षण प्रकाश और वर्षा का निमित्त है। (इन्द्रः०) यही सूर्य्य भूमि आदि लोकों में ठहरे हुए रस और मेघ को भेदन करनेवाला है। भौतिक वायु के विषय में वायवा याहि० इस मन्त्र की व्याख्या में जो प्रमाण कहे हैं, वे यहाँ भी जानना चाहिये॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमेश्वर ने प्राप्त होने योग्य और प्राप्त करानेवाले इन दो पदार्थों का प्रकाश किया है॥४॥
विषय
ज्ञानेश्वर्य व गतिशीलता
पदार्थ
१. (इन्द्रवायू) - (इन्द्रश्च वायुश्च) इन्द्र 'जितेन्द्रिय' पुरुष है , इन्द्रियों का अधिष्ठाता है । ऐसा बनने के लिए ही यह (वायु) - सतत क्रियाशील हुआ है । जितेन्द्रिय बनकर यह क्रियाशीलता से सब बुराइयों का संहार करता है । प्रभु इनसे कहते हैं कि (इन्द्र-वायू) - हे जितेन्द्रिय व क्रियाशील पुरुषो ! (इमे सुताः) - ये सोम तुम्हारे लिए उत्पन्न किये गये हैं , इनके रक्षण से ही तुम्हें इस जीवन में उन्नति को सिद्ध करना है ।
२. इनका रक्षण करते हुए (प्रयोभिः) - पयस् food सात्त्विक भोजन , Pleasure , delight मनः प्रसाद , Sacrifice त्याग - सात्विक अन्नों के सेवन से , मनः प्रसादरूप तप के साधन से तथा त्याग की वृत्ति से (उप आगतम्) - आप मेरे समीप आओ । प्रभु प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम भोजन को सात्त्विक करें , मन को सदा प्रसन्न रक्खें , मन में राग - द्वेष न हो तथा लोभ के विपरीत त्याग की वृत्तिवाले बनें ।
३. प्रभु कहते हैं कि (इन्दवः) - सुरक्षित हुए-हुए ये सोमकण (वाम्) - आप दोनों की-इन्द्र व वायु की (हि) - निश्चय से (उशन्ति) कामना करते हैं , अर्थात् सुरक्षित हुए-हुए ये सोमकण मनुष्य को 'इन्द्र व वायु' बनाते हैं , इन्हीं के कारण ज्ञानाग्नि प्रदीप्त होती है , बुद्धि सूक्ष्म बनती है और हम ज्ञानरूप परमैश्वर्य से दीप्त होनेवाले 'इन्द्र' बनते हैं और इन्हीं की सुरक्षा से हमारे जीवन में रोग नहीं आ पाते और हम क्रियाशील बने रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - गतमन्त्र के अनुसार हम स्वाध्याय के द्वारा सोम का रक्षण कर पाते हैं । यह सुरक्षित सोम हमें ज्ञानरूप परमैश्वर्य की प्राप्ति कराता है तथा सदा गतिशील बनाये रखता है ।
विषय
अब जो स्तोत्रों से प्रकाशित पदार्थ हैं, उनकी वृद्धि और रक्षा के निमित्त का इस मन्त्र में उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
इमे सुता इन्दवः हि यतः वां तौ सहचारिणौ इन्द्रवायू प्रकाशन्ते तौ च उपागतम् उपागच्छतः ततः प्रयोभिः अन्नादिभिः पदार्थैः सह सर्वे प्राणिनः सुखानि उशन्ति (कामयन्ते)॥४॥
पदार्थ
(इमे)= ये प्रत्यक्ष (सुता)=उत्पन्न हुए पदार्थ (इन्दवः) जलानि क्रियामया यज्ञाः प्राप्तव्या भोगाश्च=जो जल, क्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग पदार्थ हैं, वे, (हि) यतः= जिस कारण, वाम्= उन दोनों, (सहचारिणौ)= नैसर्गिक मित्रों, (इन्द्रवायू) इमौ प्रत्यक्षौ सूर्य्यपवनौ= सूर्य्य और पवन को, (प्रकाशन्ते)=प्रकाशित करते हैं, (तौ)=वे दोनों, (च)=भी, (उप) समीपम्=पास में, (आगतम्) आगच्छतः= प्राप्त होते हैं (वाम्) तौ (उशन्ति)= प्रकाशित करते हैं, ततः=उस स्थान से, (प्रयोभिः) तृप्तिकरैरन्नादिभिः पदार्थैः सह=अन्नादि पदार्थों के साथ सब प्राणी सुख की कामना करते हैं, (सर्वे) =सब, (प्राणिनः)=प्राणी, (सुखानि)=सुखों को (उशन्ति-कामयन्ते)= प्रकाशित करते हैं॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में परमेश्वर ने प्राप्त होने योग्य और प्राप्त करानेवाले इन दो पदार्थों का प्रकाश किया है॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(इमे) ये प्रत्यक्ष (सुता) उत्पन्न हुए पदार्थ (इन्दवः) जो जल, क्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग पदार्थ हैं, वे, (हि) जिस कारण से (वाम्) उन दोनों, (सहचारिणौ) नैसर्गिक मित्रों, (इन्द्रवायू) सूर्य्य और पवन को (प्रकाशन्ते) प्रकाशित करते हैं। (वाम्-तौ) वे दोनों (च) भी, (उप) पास में, (आगतम्) प्राप्त होते हैं (तौ) वे दोनों (उशन्ति) प्रकाशित करते हैं (ततः) उस स्थान से, (प्रयोभिः) अन्नादि पदार्थों के साथ सब प्राणी सुख की कामना करते हैं और (सर्वे) सब (प्राणिनः) प्राणी (सुखानि) सुखों को (उशन्ति-कामयन्ते) प्रकाशित करते हैं॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रवायू) इमौ प्रत्यक्षौ सूर्य्यपवनौ। इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृह्ळानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑॥ (ऋ०८.१४.९) यथेन्द्रेण सूर्य्यलोकेन प्रकाशमानाः किरणा धृताः, एवं च स्वाकर्षणशक्त्या पृथिव्यादीनि भूतानि दृढानि पुष्टानि स्थिराणि कृत्वा दृंहितानि धारितानि सन्ति। (न पराणुदे) अतो नैव स्वस्वकक्षां विहायेतस्ततो भ्रमणाय समर्थानि भवन्ति। इ॒मे चि॑दिन्द्र॒ रोद॑सी अपा॒रे यत्सं॑गृ॒भ्णा म॑घवन् का॒शिरित्ते॑। (ऋ०३.३०.५) इमे चिदिन्द्र रोदसी रोधसी द्यावापृथिव्यौ विरोधनाद्रोधः (कूलं निरुणद्धि स्रोतः) कूलं रुजतेर्विपरीताल्लोष्टोऽविपर्य्ययेणापारे दूरपारे यत्संगृभ्णासि मघवन् काशिस्ते महान्। अह॒स्तमि॑न्द्र॒ संपि॑ण॒क्कुणा॑रुम्। (ऋ०३.३०.८) अहस्तमिन्द्र कृत्वा संपिण्ढि परिक्वणनं मेघम्। (निरु०६.१) यतोऽयं सूर्य्यलोको भूमिप्रकाशौ धारितवानस्ति, अत एव पृथिव्यादीनां निरोधं कुर्वन् पृथिव्यां मेघस्य च कूलं स्रोतश्चाकर्षणेन निरुणद्धि। यथा बाहुवेगेनाकाशे प्रतिक्षिप्तो लोष्ठो मृत्तिकाखण्डः पुनर्विपर्य्ययेणाकर्षणाद् भूमिमेवागच्छति, एवं दूरे स्थितानपि पृथिव्यादिलोकान् सूर्य्य एव धारयति। सोऽयं सूर्य्यस्य महानाकर्षः प्रकाशश्चास्ति। तथा वृष्टिनिमित्तोऽप्ययमेवास्ति। इन्द्रो वै त्वष्टा। (ऐ०ब्रा०६.१०) सूर्य्यो भूम्यादिस्थस्य रसस्य मेघस्य च छेत्तास्ति। एतानि भौतिकवायुविषयाणि 'वायवायाहि०' इति मन्त्रप्रोक्तानि प्रमाणान्यत्रापि ग्राह्याणि। (इमे सुताः) प्रत्यक्षभूताः पदार्थाः (उप) समीपम् (प्रयोभिः) तृप्तिकरैरन्नादिभिः पदार्थैः सह। प्रीञ् तर्पणे कान्तौ चेत्यस्मादौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (आगतम्) आगच्छतः। लोट्मध्यमद्विवचनम्। बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। अनुदात्तोपदेशेत्यनुनासिकलोपः। (इन्दवः) जलानि क्रियामया यज्ञाः प्राप्तव्या भोगाश्च। इन्दुरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) यज्ञनामसु। (निघं०३.१७) पदनामसु च। (निघं०५.४) (वाम्) तौ (उशन्ति) प्रकाशन्ते (हि) यतः॥४॥
विषयः- अथोक्थप्रकाशितपदार्थानां वृद्धिरक्षणनिमित्तमुपदिश्यते।
अन्वयः- इमे सुता इन्दवो हि यतो वान्तौ सहचारिणाविन्द्रवायू प्रकाशन्ते तौ चोपागतमुपागच्छतस्ततः प्रयोभिरन्नादिभिः पदार्थैः सह सर्वे प्राणिनः सुखान्युशन्ति कामयन्ते॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन्मन्त्रे प्राप्यप्रापकपदार्थानां प्रकाशः कृत इति॥४॥
विषय
सूर्य वायु के समान माता पिता, गुरु आचार्य, वायु और इन्द्र का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रवायू ) सूर्य के समान सब अर्थों के प्रकाशक और वायु के समान सब के जीवनप्रद ! ( वां ) तुम दोनों को ( इमे सुताः ) ये समस्त उत्पन्न ( इन्दवः ) ऐश्वर्ययुक्त पदार्थ और क्रियामय यज्ञ और प्राप्त करने योग्य योग्य पदार्थ भी ( हि ) निश्रय से ( उशन्ति ) चाहते हैं और तुम्हें ही प्राप्त होते हैं । तुम ( प्रयोभिः ) अनादि उत्तम पदार्थों के सहित (आ गतम् ) हमें प्राप्त होवो । जैसे सूर्य और पवन जलों को अपने में धारण करते हैं वे दोनों हमें अन्नादि पदार्थों सहित प्राप्त होते हैं । अर्थात् वे दोनों हमें अन्न प्रदान करते हैं। उसी प्रकार इनके गुणों के धारक विद्वान और बलवान् पुरुषों को प्राप्त पदार्थ और ऐश्वर्य चाहते हैं ये सब ऐश्वर्य उनके हैं । वे ( प्रयोभिः ) ज्ञान और बलों सहित हमें प्राप्त हों । अथवा - ( इमे सुताः इन्दवः ) ये पुत्र के समान, आज्ञावशवर्त्ती, जलों के समान सौम्य और शीतल स्वभाव वाले शिष्य और पुत्र गण सूर्य और पवन के समान ज्ञानप्रद और प्राणप्रद, पिता माता और गुरु, आचार्य को चाहते हैं। वे ज्ञानों और अन्नों सहित हमें प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दाः ऋषिः ॥ १-३ वायुर्देवता । ४-६ इन्द्रवायू । ७-९ मित्रा वरुणौ । गायत्र्यः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराकडून प्राप्य व प्रापक या दोन पदार्थांना प्रकट केलेले आहे.
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, lord of light, and Vayu, breath of life and energy, distilled are these vital essences with joyous experiments of yajna. They manifest and glorify your divine light and power. Come and bless us.
Translation
O Lord, resplendent and the source of cosmic vitality, verily our songs and invocations are for you and your eternal order. May you come to us and nourish us with your blessings.
Subject of the mantra
Those substances which have been elucidated by the group of hymns of Vedas, in this mantra the purpose of their protection has been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ime)=these perceptible, (sutā)=begotten substances, (indavaḥ)=are those water, functioning yajna and obtainable consumable substances, [ve]=they, (hi)=due to which reason, (vām)=to both, (sahacāriṇau)=natural friends, (indravāyū)=to sun and air, (prakāśante)=illuminate, (uśanti)=illuminate, (ca)=also, (upa)=near, (āgatam)=get obtained, (tau)=both of them, (tataḥ)=from that place, (prayobhiḥ)=All living beings wish for happiness with grain etc. substances, (prāṇinaḥ)=living beings, (sukhāni)=delights, (uśanti)=manifest.
English Translation (K.K.V.)
These perceptible begotten substances are such as water, functioning yajan and obtainable consumable substances, due to which they illuminate natural friends, Sun and air. Both of them also get obtained in the vicinity. Both of them illuminate. All living beings wish for happiness with grain etc. substances from that place and manifest delights.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra, the God has promulgated these two things which are attainable and those getting obtained.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now it is taught how this knowledge of God and air is to be increased and preserved.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Because Yajnas producing water with various activities and all attainable enjoyments shine on account of the sun and the air and when they come, all beings desire happiness with the food materials and other articles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्दवः) जलानि क्रियामयायज्ञाः प्राप्तव्याभोगाश्च इन्दुरिति उदकनामसु (निघण्टु १. १२ ) इन्दुरिति यज्ञनामसु (निघण्टु ३.१७ ) इन्दुरिति पदनामसु (निघण्टु ५. ४ ) (उशन्ति ) प्रकाशन्ते वश-कान्तौ (अदा ) कान्ति:-कामना इन्द्र stands here for the sun as the following Mantras clearly denote-इन्द्रेण रोचनादिवो दृडानि दृ'हितानि च । स्थिराणि न पराणुदे !! ऋ०८.१४.९ इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्सन्गृभ्णा मघवन् काशिरिते In these Mantras, it is stated that it is the sun that supports the heaven and earth with his gravitation and makes them firm.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this Mantra, it is mentioned which are the objects to be obtained and how they are obtained.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Manuj Sangwan
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal