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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - प्रतिष्ठागायत्री स्वरः - षड्जः

    आ हि ष्मा॑ सू॒नवे॑ पि॒तापिर्यज॑त्या॒पये॑। सखा॒ सख्ये॒ वरे॑ण्यः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । हि । स्म॒ । सू॒नवे॑ । पि॒ता । आ॒पिः । यज॑ति । आ॒पये॑ । सखा॑ । सख्ये॑ । वरे॑ण्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। हि। स्म। सूनवे। पिता। आपिः। यजति। आपये। सखा। सख्ये। वरेण्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा पिता सूनवे सखा सख्य आपिरापय आयजति, तथैवान्योऽयं सम्प्रीत्या कार्याणि संसाध्य हि ष्म सर्वोपकाराय यूयं सङ्गच्छध्वम्॥३॥

    पदार्थः

    (आ) अभितः (हि) निश्चये (स्म) स्पष्टार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सूनवे) अपत्याय (पिता) पालकः (आपिः) सुखप्रापकः। अत्र ‘आप्लृ व्याप्तौ’ अस्मात्। इञजादिभ्यः। (अष्टा०वा०३.३.१०८) इति वार्त्तिकेन ‘इञ्’ प्रत्ययः। (यजति) सङ्गच्छते (आपये) सद्गुणव्यापिने (सखा) सुहृत् (सख्ये) सुहृदे (वरेण्यः) सर्वत उत्कृष्टतमः॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सन्तानसुखसम्पादकः कृपायमाणः पिता मित्राणां सुखप्रदः सखा विद्यार्थिने विद्याप्रदो विद्वाननुकूलो वर्त्तते, तथैव सर्वे मनुष्याः सर्वोपकाराय सततं प्रयतेरन्नितीश्वरोपदेशः॥३॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (पिता) पालन करनेवाला (सूनवे) पुत्र के (सखा) मित्र (सख्ये) मित्र के और (आपिः) सुख देनेवाला विद्वान् (आपये) उत्तम गुण व्याप्त होने विद्यार्थी के लिये (आयजति) अच्छे प्रकार यत्न करता है, वैसे परस्पर प्रीति के साथ कार्यों को सिद्धकर (हि) निश्चय करके (स्म) वर्त्तमान में उपकार के लिये तुम सङ्गत हो॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अपने लड़कों को सुख सम्पादक उन पर कृपा करनेवाला पिता, स्वमित्रों को सुख देनेवाला मित्र और विद्यार्थियों को विद्या देनेवाला विद्वान् अनुकूल वर्त्तता है, वैसे ही सब मनुष्य सबके उपकार के लिये अच्छे प्रकार निरन्तर यत्न करें, ऐसा ईश्वर का उपदेश है॥३॥

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    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा पिता सूनवे सखा सख्ये आपिः आपये आ यजति तथा एव अन्यः अयं सम्प्रीत्या कार्याणि संसाध्य हि ष्म सर्वोपकाराय यूयं सङ्गच्छध्वम्॥३॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्यो! (यथा)=जैसे, (पिता) पालक= पालन करनेवाला, (सूनवे) अपत्याय=पुत्र के लिये,  (सखा) सुहृत्=मित्र,  (सख्ये) सुहृदे=मित्र के, (आपिः) सुखप्रापकः= सुख देनेवाला, (आपये) सद्गुणव्यापिने=उत्तम गुणों की व्याप्त के लिये, (आ) अभितः=हर ओर से, (यजति) सङ्गच्छते=सङ्गति करता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (अन्यः)=अन्य, (अयम्)=यह, (सम्प्रीत्या)=परस्पर प्रीति के साथ, (कार्याणि)=कार्यों को, (संसाध्य)=सिद्ध करके, (हि) निश्चये=निश्चय करके, (ष्म) स्म स्पष्टार्थे=स्पष्ट रूप से ही, (सर्वोपकाराय)=सबका  उपकार करने के लिये, (यूयम्)=आप सब,  (सङ्गच्छध्वम्)=सङ्गति करते हो ॥३॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अपने  सन्तान के लिए सुख सम्पन्न कर्त्ता, कृपा करनेवाल पिता, मित्रों को सुख देनेवाला  है और मित्र विद्यार्थियों को विद्या देनेवाला विद्वान् के अनुकूल व्यवहार करता है, वैसे ही सब मनुष्य सबके उपकार के लिये निरन्तर यत्न करें, ऐसा ईश्वर का उपदेश है॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यो! (यथा) जैसे (पिता)  पालन करने वाला (सूनवे)  पुत्र और (सख्ये) मित्र के लिये (आपिः) सुख देने वाला है और (आपये) उत्तम गुणों की व्याप्ति के लिये, (आ) हर ओर से (यजति)  सङ्गति करता है। (तथा) वैसे (एव) ही (अन्यः) अन्य (अयम्) यह (सम्प्रीत्या) परस्पर प्रीति के साथ (कार्याणि) कार्यों को (संसाध्य) सिद्ध करके (हि)  निश्चय करके (ष्म) स्पष्ट रूप से ही (सर्वोपकाराय) सबका  उपकार करने के लिये (यूयम्) आप सब (सङ्गच्छध्वम्) सङ्गति करते हो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) अभितः (हि) निश्चये (स्म) स्पष्टार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सूनवे) अपत्याय (पिता) पालकः (आपिः) सुखप्रापकः। अत्र 'आप्लृ व्याप्तौ' अस्मात्। इञजादिभ्यः। (अष्टा०वा०३.३.१०८) इति वार्त्तिकेन 'इञ्' प्रत्ययः। (यजति) सङ्गच्छते (आपये) सद्गुणव्यापिने (सखा) सुहृत् (सख्ये) सुहृदे (वरेण्यः) सर्वत उत्कृष्टतमः॥३॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यथा पिता सूनवे सखा सख्य आपिरापय आयजति, तथैवान्योऽयं सम्प्रीत्या कार्याणि संसाध्य हि ष्म सर्वोपकाराय यूयं सङ्गच्छध्वम्॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सन्तानसुखसम्पादकः कृपायमाणः पिता मित्राणां सुखप्रदः सखा विद्यार्थिने विद्याप्रदो विद्वाननुकूलो वर्त्तते, तथैव सर्वे मनुष्याः सर्वोपकाराय सततं प्रयतेरन्नितीश्वरोपदेशः॥३॥ 

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    विषय

    पिता , बन्धु व मित्र

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में प्रभु को 'होता' कहा है । प्रभु सब - कुछ देनेवाले हैं । उसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि (हि) - निश्चय से जैसे (पिता सूनवे) - पिता पुत्र के लिए (आयजति स्म) - सब - कुछ देता है और (आपिः) - बन्धु (आपये) - अपने बन्धु के लिए सब - कुछ देता है तथा (सखा) - मित्र के लिए सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाला होता है , उसी प्रकार आप हमें सब - कुछ देते हैं । आप ही हमारे पिता , बन्धु व मित्र हैं । 

    २. वस्तुतः इसीलिए आप ही (वरेण्यः) - वरने के योग्य हैं । मुझे इस प्रकार की सुमति दीजिए कि मैं आपका अनुरूप पुत्र बनने का प्रयत्न करूँ । आपको ही अपना बन्धु व मित्र समझें । मेरे सब कार्य आपके बन्धुत्व और मित्रता के योग्य हों । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारे पिता , बन्धु व मित्र हैं , अतः वे ही वरणीय हैं । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुषों की सेवा ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पिता) पालक पिता ( सूनवे ) पुत्र को अपना सर्वस्व (आ यजति) देता है और ( आपिः आपये ) आप्त विद्वान् या बन्धु आप्त शिष्य या बन्धु को अपना ज्ञान और धन प्रदान करता है और (सखा) मित्र अपना प्रेम और धन ( सख्ये ) मित्र को प्रदान करता है उसी प्रकार हे परमेश्वर ! राजन् ! तू भी हमें हमारे ( पिता, आपि, सखा ) पिता, बन्धु और मित्र होकर मुझ ( सूनवे आपये सख्ये ) पुत्र बन्धु और मित्र के लिए ( वरेण्यः ) वरण करने योग्य सर्वश्रेष्ठ होकर ( आ यजति स्म ) सब कुछ प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। गीता ११ । ४३ पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ गीता ११ । ४४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्त्तिर्ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१-८, ९ आर्ची उष्णिक् । २-६ निचृद्गायत्री । ३ प्रतिष्ठा गायत्री । ४, १० गायत्री । ५, ७ विराड् गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

     मन्त्र
     आ हि ष्मा सूनवे  पितापिर्यजत्यापये।
    सखा सख्ये वरेण्य:।।ऋ•१.२६.३
                      भजन
                राग बिलावल
      गायन समय दिन का प्रथमप्रहर
            ताल कहरवा ८ मात्रा
    सखा कहूं या पिता(२)
    तेरा पुत्र मैं तुझे छोड़ मैं,
    जाऊं कहां तू बता।।
    सखा कहूं......
    परिपूर्ण  तुझसे है नाता,
    वात्सल्यों को तू बरसाता,
    मैं अपूर्ण अशक्त  हूं बालक,
    मुझे सहायता तू पहुंचाता,
    कैसे छोड़ूं आंचल तेरा,
     रहा मैं तुझसे बंधा।।
     सखा कहूं ......
    मैं जानूं तू जन्म का दाता,
    इसीलिए तो पिता कहाता,
    जब अटूट सम्बन्ध दिखाता,
    बन्धुभाव में मन लग जाता,
    मैं चेतन तुझसा,पर छोटा(२),
    तुम्ही वरेण्य हो सखा।।
    सखा कहूं.....
    सदा स्वस्तिपथ तू ही दिखाता,
    पालनहार भी तू कहलाता,
    मेरा हितचिंतक बनकर प्रभु,
    क्यों ना हृदय में मेरे समाता,
    मेरा तो सर्वस्व ही तू है(२)
    तेरी सदा रहे कृपा।।
    सखा कहूं .....
    सदा ही मांगू ये दे, वो दे,
    बिन मांगे भी हरदम देता,
    यही यजन है, यही कृपा भी,
    बदले में ना तू कुछ लेता,
    तू है पिता पुत्रों को देता,
    तेरी सदा ये प्रथा ।।
    सखा कहूं .....

    वरेण्य=पूजनीय,प्रधान,वरनेयोग्य,
    महादेव, शिव 
    यजन= निष्काम त्याग
    स्वस्तिपथ= कल्याण का रास्ता
     

    Vyakhya

     जीवन सर्वस्व परमात्मा

    संसार में पिता-पुत्र वात्सल्य से प्रेरित होकर पुत्र के लिए क्या नहीं करता?
     बन्धु,बन्धु के लिए,जी जान से पूरी सहायता करता है। श्रेष्ठ मित्र अपने मित्र के लिए सब कुछ अर्पण करने को उद्यत रहता है। पर हे प्रभु ! तुम मेरे सब कुछ हो, तुम्हारे होते हुए मुझे किसी चीज की क्यों कमी रहनी चाहिए?         
    तुमसे मेरा जो सम्बन्ध है वह घनिष्ठ है, अटूट है ।तुम्हें मैं किस नाम से पुकारुं? उस परिपूर्ण सम्बन्ध का वर्णन नहीं हो सकता। 
    मैं संसार की भाषा में तुझे कभी पिता कभी बन्धु ,कभी सखा पुकारता हूं,पर हे प्यारे! हे मेरी आत्मा ! इन शब्दों से मेरा तेरा वह सम्बन्ध व्यक्त नहीं हो सकता।जब मैं देखता हूं कि तुम मेरे पैदा करने वाले और लगातार पालनेवाले हो तब मैं अपनी भक्ति और प्रेम को प्रकट करने के लिए तुम्हें पिता- पिता पुकारने लगता हूं और तुमसे पुत्र-वात्सल्य पाने के लिए रोने लगता हूं।  जब मुझको तुम्हारे घनिष्ठ सम्बन्ध की याद आती है, उस अटूट सम्बन्ध की याद आती है, उस अटूट सम्बन्ध की जो मेरा संसार में और किसी से भी नहीं है, तब मैं बन्धुभाव में विभोर होकर तुमसे बातें करने लगता हूं और जब देखता हूं कि मैं भी तुम्हारी तरह आत्मा हूं, और चेतन हूं, तुम भले ही मुझसे बहुत बड़े  'वरेण्य' हो, तो मैं सखा बनकर तुम्हें वरेण्य सखा नाम से संबोधित करता हूं।
     हे प्रभु !तुम मुझे पुत्र मानो बन्धु या सखा मानो कुछ भी मानो,हर तरह से मैं तेरा हूं और तुम मेरे हो।
     हे मेरे! तो मुझ अपने को तुम कैसे छोड़ सकते हो? मैं अपूर्ण अशक्त बालक तेरा हूं, इसलिए मेरी सहायता किए बिना तुम कैसे रह सकते हो ? तुम परिपूर्ण हो तुम्हें सदा मुझे दे देते रहने के सिवा और कार्य ही क्या है? यही मेरे लिए तुम्हारा यजन है, तो मुझे देते रहो और मैं लेता रहूं,यही तुम्हारी ओर से मेरा यजन है तुमसे मेरा सम्बन्ध इसी रूप में स्थिर है। बड़ा छोटे को दिया ही करता है, इसलिए मैं क्या मांगू? मेरी आवश्यकता को समझना और पूरी तरह पूर्ण करना है,तुम स्वयं ही करोगे। हे मेरे ! तुम स्वयं ही करोगे। 
    बस मैं तेरा हूं और क्या कहूं ?
    हे मेरे सर्वस्व !  हे मेरे सब कुछ! मैं तेरा ही हूं ।

    https://youtu.be/ZMVAGOlEZj0?si=j97b3BRqiknQtdgk

    गायक, वादक व गीतकार:-
    ललित मोहन साहनी
    वीडियो निर्माण:-
    अदिति शेठ द्वारा

    प्रिय वैदिक श्रोताओ❗🙏
    आज बिटिया अदिति शेठ ने ऋगवेद के 1/26/3 पर  94 th वीडियो का निर्माण किया है, जो मैं आप सब के साथ शेयर कर रहा हूं।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा आपल्या मुलांना सुख देणारा व त्यांच्यावर कृपा करणारा पिता, स्वमित्रांना सुख देणारा मित्र व विद्यार्थ्यांना विद्या देणारा विद्वान त्यांच्या अनुकूल वागतो तसेच सर्व माणसांनी सर्वांवर उपकार करण्यासाठी सतत यत्न करावा असा ईश्वराचा उपदेश आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, self-refulgent lord of light, dearest yajnic power of our choice, just as a father for the son, a benefactor for the beneficiary, a friend for a friend performs the yajna, so may you, we pray, bless us. (So may we too perform yajna for one another.)

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that is, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=men, (yathā)=as, (pitā)=one who nourishes, (sūnave) =for son, [aura=and, (sakhye)sakhye=for friend, (āpiḥ)=is provider of happiness, [aura]=and, (āpaye)=for the spread of good qualities, (ā)=from every direction, (yajati)=harmonizes, (tathā+eva)=in the same way, (anyaḥ)=others, (ayam)=this, (samprītyā)=mutual affection, (kāryāṇi)=to the deeds, (saṃsādhya)=for accomplishment, (hi)=certainly, (ṣma)=clearly, (sarvopakārāya)=for the benefit of all, (yūyam)=all of you, (saṅgacchadhvam)=harmonize.

    English Translation (K.K.V.)

    O men! As one who nourishes is provider of happiness for the son, and friend; and harmonizes for the spread of good qualities from every direction. In the same way only, others all of you specifically, certainly harmonize for this mutual affection for the accomplishment of deeds for the benefit of all.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent simile as a figurative in this mantra. Just as the doer of happiness for his children, the father who is kind, the one who gives happiness to friends and the friend who gives education to the students, behaves like a learned man, in the same way, all human beings should make continuous efforts for the benefit of all, such is the teaching of God.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni is further taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) When addressed to God the meaning is clear. Thou O Omniscient God art verily as a loving father to a son, as a kinsman giving happiness to a virtuous kinsman, as the most acceptable friend to a friend. (2) Omen, as a father behaves towards to his son, as a kinsman causing happiness to his virtuous kinsman and as a good friend to his friend, in the same way, you should behave in a friendly manner towards another and having accomplished all tasks, should be united for the welfare of all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आपिः) सुखप्रापकः । अत्र आप्लु -व्याप्तौ अस्मात् इणजादिभ्यः (अष्टा० ३.३.१०८) इतिइण् प्रत्ययः । = He who causes happiness. (यजति) संगच्छते = Unites. (आपये) सद्गुणव्यापिने = For a virtuous person.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is implied simile here. As a kind and loving father who causes happiness to his sons, as a friend causing happiness to his friends and a learned teacher to his students, all men should love one another and always put forth their united efforts for bringing about the welfare of all. This is the teaching given by God.

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