ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 13
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नमो॑ म॒हद्भ्यो॒ नमो॑ अर्भ॒केभ्यो॒ नमो॒ युव॑भ्यो॒ नम॑ आशि॒नेभ्यः॑। यजा॑म दे॒वान्यदि॑ श॒क्नवा॑म॒ मा ज्याय॑सः॒ शंस॒मा वृ॑क्षि देवाः॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑ । म॒हत्ऽभ्यः॑ । नमः॑ । अ॒र्भ॒केभ्यः॑ । नमः॑ । युव॑भ्यः । नमः॑ । आ॒शि॒नेभ्यः॑ । यजा॑म । दे॒वान् । यदि॑ । श॒क्नवा॑म । मा । ज्याय॑सः॒ । शंस॑म् । आ । वृ॒क्षि॒ । दे॒वाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः। यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥
स्वर रहित पद पाठनमः। महत्ऽभ्यः। नमः। अर्भकेभ्यः। नमः। युवभ्यः। नमः। आशिनेभ्यः। यजाम। देवान्। यदि। शक्नवाम। मा। ज्यायसः। शंसम्। आ। वृक्षि। देवाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सर्वेषां सत्कारः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो वयं महद्भ्योऽन्नं यजाम दद्यामैवमर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यश्च नमो ददन्तो वयं यदि शक्नवाम ज्यायसो देवानायजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्यामैवं प्रतिजनोऽहमेतेषां शंसम्मावृक्षि कदाचिन्मा वर्जयेयम्॥१३॥
पदार्थः
(नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (महद्भ्यः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) प्रीणनाय (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (नमः) सत्काराय (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्ठेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) सेवायै (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः (यजाम) दद्याम (देवान्) विदुषः (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे (शक्नवाम) समर्था भवेम (मा) निषेधार्थे (ज्यायसः) विद्याशुभगुणैर्ज्येष्ठान् (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम् (आ) समन्तात् (वृक्षि) वर्जयेयम्। अत्र ‘वृजी वर्जन’ इत्यस्माल्लिडर्थे लुङ् छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणादिण् न। वृजीत्यस्य सिद्धे सति सायणाचार्य्येण ओव्रश्चू इत्यस्य व्यत्ययं मत्त्वा प्रमादादेवोक्तमिति (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने॥१३॥
भावार्थः
अत्र मनुष्यैर्निरभिमानत्वं प्राप्यान्नादिभिः सर्वे सत्कर्त्तव्या इतीश्वर उपदिशति यावत्स्वसामर्थ्यं तावद्विदुषां सङ्गसत्कारौ नित्यं कर्त्तव्यौ नैव कदाचित्तेषां निन्दा कर्त्तव्येति॥१३॥पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।
हिन्दी (5)
विषय
अब अगले मन्त्र में सब का सत्कार करना अवश्य है, इस बात का प्रकाश किया है॥
पदार्थ
हे (देवाः) सब विद्याओं को प्रकाशित करनेवाले विद्वानो ! हम लोग (महद्भ्यः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के लिये (नमः) सत्कार अन्न (यजाम) करें और दें (अर्भकेभ्यः) थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के (नमः) तृप्ति (युवभ्यः) युवावस्था से जो बलवाले विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सत्कार (आशिनेभ्यः) समस्त विद्याओं में व्याप्त जो बुड्ढे विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सेवापूर्वक देते हुए (यदि) जो सामर्थ्य के अनुकूल विचार में (शक्नवाम) समर्थ हों तो (ज्यायसः) विद्या आदि उत्तम गुणों से अति प्रशंसनीय (देवान्) विद्वानों को (आयजाम) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण करें, इसी प्रकार हम सब जने (शंसम्) इनकी स्तुति प्रशंसा को (मा वृक्षि) कभी न काटें॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में ईश्वर का यह उपदेश है कि मनुष्यों को चाहिये अभिमान छोड़कर अन्नादि से सब उत्तम जनों का सत्कार करें अर्थात् जितना धन पदार्थ आदि उत्तम बातों से अपना सामर्थ्य हो उतना उनका संग करके विद्या प्राप्त करें, किन्तु उनकी कभी निन्दा न करें॥१३॥पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जाननेवाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जाननेवाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये।
विषय
अब इस मन्त्र में सब का सत्कार करना अवश्य है, इस बात का प्रकाश किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे देवाः विद्वांसः वयं महद्भ्यः अन्नं यजाम दद्याम एवम् अर्भकेभ्यः नमः युवभ्यः नम आशिनेभ्यः च नमः ददन्तः वयं यदि शक्नवाम ज्यायसः देवान् आयजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्याम एवं प्रतिजनः अहम् एतेषाम् शंसं मा वृक्षि कदाचित् मा वर्जयेयम्॥१३॥
पदार्थ
हे (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने=सब विद्याओं को प्रकाशित करनेवाले, (विद्वांसः)=विद्वानो ! (वयम्)=हम लोग, (महद्भ्यः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भ्यः=पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के लिये, (अन्नम्)=अन्न को, (यजाम) दद्याम=देकर, (एवम्)=और, (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः=थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के, (नमः) सत्काराय=सत्कार के लिये, (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्ठेभ्यो= युवावस्था से जो बलवाले विद्वान् हैं, उनके लिये, (नमः) सत्करणमन्नं वा=सत्कार में अन्न की, (नमः) प्रीणनाय=तृप्ति के लिये, (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः=समस्त विद्याओं में व्याप्त जो वृद्ध विद्वान् हैं, उनके लिये (च)=और, (नमः) सत्काराय=सत्कार के लिये, (ददन्तः)=देते हुए, (वयम्)=हम, (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे=जो सामर्थ्य के अनुकूल विचार में, (शक्नवाम) समर्था भवेम=समर्थ हों तो, (ज्यायसः) विद्याशुभगुणैर्ज्येष्ठान्=विद्या आदि उत्तम गुणों से अति श्रेष्ठ, (देवान्) विदुषः=विद्वानों को, (आ) समन्तात्=अच्छे प्रकार से, (यजाम) दद्याम=प्रदान करें, (समन्तात्)=अच्छे प्रकार, (विद्यादानम्)=विद्या दान, (कुर्याम)=करें, (एवम्)=और, (प्रतिजनः)=प्रत्येक को जानते हुए, (अहम्)=मैं, (एतेषाम्)=इन, (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम्=जिनकी स्तुतिसमूहम् प्रशंसा करते हैं, उसे (मा) निषेधार्थे=कभी न, (वृक्षि) वर्जयेयम्=त्यागें॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद-इस मन्त्र में ईश्वर का यह उपदेश है कि मनुष्यों के द्वारा अभिमान छोड़कर अन्नादि से सब उत्तम कर्त्तव्य करने चाहिएँ, ऐसा ईश्वर उपदेश करता है कि जब तक अपना सामर्थ्य हो तब तक विद्वानों का सत्कार नित्य करना चाहिए, कभी उनकी निन्दा नही करनी चाहिए ॥१३॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त का भावार्थ- पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जाननेवाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (देवाः) सब विद्याओं को प्रकाशित करनेवाले (विद्वांसः) विद्वानो! (वयम्) हम लोग (महद्भ्यः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों का (अन्नम्) अन्न (यजाम) देकर सत्कार करें। (एवम्) ऐसे ही (अर्भकेभ्यः) थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के (नमः) सत्कार के लिये और (युवभ्यः) जो युवावस्था के बलवाले विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) तृप्ति के लिये अन्न देकर देकर सत्कार करें। (आशिनेभ्यः) समस्त विद्याओं में व्याप्त जो वृद्ध विद्वान् हैं, उनके लिये (च) भी (नमः) सत्कार के लिये अन्न (ददन्तः) देते हुए (वयम्) हम (यदि) जो अनुकूल विचार में (शक्नवाम) समर्थ हों तो (ज्यायसः) विद्या आदि उत्तम गुणों से अति श्रेष्ठ (देवान्) विद्वानों को (आ) अच्छे प्रकार से (यजाम) प्रदान करें। हम (समन्तात्) अच्छे प्रकार से (विद्यादानम्) विद्या दान (कुर्याम) करें, (एवम्) ऐसे ही (प्रतिजनः) प्रत्येक व्यक्ति (एतेषाम्) इन जिनकी (शंसम्) हम स्तुतिसमूहम् से प्रशंसा करते हैं, उन्हें (अहम्) मंन (मा) कभी न (वृक्षि) त्यागूँ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (महद्भ्यः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) प्रीणनाय (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (नमः) सत्काराय (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्ठेभ्यो विद्वद्भ्यः (नमः) सेवायै (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः (यजाम) दद्याम (देवान्) विदुषः (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे (शक्नवाम) समर्था भवेम (मा) निषेधार्थे (ज्यायसः) विद्याशुभगुणैर्ज्येष्ठान् (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम् (आ) समन्तात् (वृक्षि) वर्जयेयम्। अत्र 'वृजी वर्जन' इत्यस्माल्लिडर्थे लुङ् छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणादिण् न। वृजीत्यस्य सिद्धे सति सायणाचार्य्येण ओव्रश्चू इत्यस्य व्यत्ययं मत्त्वा प्रमादादेवोक्तमिति (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने॥१३॥
विषयः- अथ सर्वेषां सत्कारः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे देवा विद्वांसो वयं महद्भ्योऽन्नं यजाम दद्यामैवमर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यश्च नमो ददन्तो वयं यदि शक्नवाम ज्यायसो देवानायजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्यामैवं प्रतिजनोऽहमेतेषां शंसम्मावृक्षि कदाचिन्मा वर्जयेयम्॥१३॥
महर्षिकृत (भावार्थ)- अत्र मनुष्यैर्निरभिमानत्वं प्राप्यान्नादिभिः सर्वे सत्कर्त्तव्या इतीश्वर उपदिशति यावत्स्वसामर्थ्यं तावद्विदुषां सङ्गसत्कारौ नित्यं कर्त्तव्यौ नैव कदाचित्तेषां निन्दा कर्त्तव्येति॥१३॥
महर्षिकृतः सूक्तस्य (भावार्थः)- पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षड्विंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥१३॥
विषय
बृहद्भानु का जीवन - नम्रता , यज्ञ , आज्ञापालन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु के उक्थों के द्वारा हमारा ज्ञान बढ़ाया जाता है तब हमारा जीवन नम्रता , यज्ञ व आज्ञापालन से युक्त होता है । मन्त्र में कहते हैं कि हम (महद्भ्यः नमः) - बड़ों के लिए नमस्कार करते हैं , (अर्भकेभ्यः नमः) - छोटों के लिए नमस्कार करते हैं , (युवभ्यः नमः) - अवस्था के दृष्टिकोण से नौजवानों के लिए नमस्कार करते हैं और (आशिनेभ्यः) - जो अवस्था को बहुत - कुछ व्याप्त कर चुके हैं , उन वृद्धों के लिए (नमः) - नमस्कार करते हैं , अर्थात् बड़े - छोटे , नौजवान - वृद्ध सभी के साथ नम्रता से वर्तते हैं । हमारे वर्ताव में अभिमान की गन्ध भी नहीं होती ।
२. और (शक्नवाम) - यदि समर्थ होते हैं तो (देवान् यजाम) - देवताओं का यजन करते हैं । शक्ति के अनुसार देव - यज्ञ को अवश्य करते ही हैं अर्थात् सारा ही नहीं खा लेते । यज्ञ करके यज्ञशेष अमृत का ही सेवन करते हैं ।
३. और हे (देवाः) - दिव्य शक्तियों ! आप सबकी हमपर ऐसी कृपा हो कि हम (ज्यायसः शंसम्) - बड़े के कहने को (मा आवृक्षि) - किसी भी प्रकार तोड़ें नहीं । जैसा बड़े कहें वैसा ही हम करें , उनकी आज्ञा को अवश्य मानें ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा जीवन नम्रता , यज्ञ व आज्ञाकारिता से परिपूर्ण होकर शोभान्वित हो जाए ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ प्रभु - वन्दन द्वारा पाप के दूरीकरण से होता है [१] । वे प्रभु ही प्रेरक व सुखों के वर्षक हैं [२] । वे अघायु पुरुषों से हमारा रक्षण करते हैं [३] । हमारे जीवन में 'संविभाग , प्राणरक्षण व स्तवन' की भावना को भरते हैं [४] । उत्तम , मध्यम व अन्त्य सब धनों को प्राप्त कराते हैं [५] । हम जहाँ कहीं भी हों वे प्रभु हमें आवश्यक धन देते ही हैं [६] । संग्रामों में वे ही रक्षा करते हैं [७] । प्रभु से रक्षित पुरुष का बल प्रशंसनीय होता है [८] । यह व्यक्ति संसार - सागर को तैर जाता है [९] । हमें चाहिए कि हम बुढ़ापे ही में न चेतें , सदा प्रभुस्तवन करनेवाले बनें [१०] । वे प्रभु हमें बुद्धि व बल दें [११] । प्रभु से रक्षित होकर व ज्ञान प्राप्त करके [१२] हम नम्र , यज्ञशील व आज्ञाकारी बनें [१३] । इस सबके लिए सोम का रक्षण आवश्यक है , अतः सोमसवन व रक्षण से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
सबका यथा योग्य आदर ।
भावार्थ
( महद्भ्यः ) बड़े आदरणीय विद्यावृद्ध, वयोवृद्ध, तपोवृद्ध बलवृद्ध पुरुषों को ( नमः ) नमस्कार, आदर और बल, वीर्य, उचित पद प्राप्त हो । (अर्भकेभ्यः नमः) बालक, विद्या, बल में अल्प, पुत्र, शिष्य आदि को भी उचित आदर प्राप्त हो । ( युवभ्यः नमः) युवा, बलवान् और विद्यावान् पुरुषों को भी नमस्कार आदर प्राप्त हो । (आशिनेभ्यः नमः) विद्या और बल, अधिकार में अधिक सामर्थ्यवान् पुरुषों को आदर प्राप्त हो । ( यदि ) हम जब भी ( शक्नवाम ) शक्ति और सामर्थ्यवान् हों, जितना भी कर सकें ( देवान् ) उत्तम ज्ञानवान्, ज्ञान, बल और सुख के प्रदाता और व्यवहारकुशल, तत्त्वदर्शी विद्वान पुरुषों का ( यजाम ) सत्संग करें, उनकी पूजा और आदर, दान मान सत्कार करें । हे ( देवाः ) विद्या प्रकाशक विद्वान् और दानशील पुरुषो ! मैं ( ज्यायसः ) अपने से बड़ों की ( शंसम् ) कीर्त्ति, स्तुति को (मा आवृक्षि) न काटूं, न परित्याग करूं।
टिप्पणी
‘आवृक्षि’–ब्रश्चतेरिति सायणः । वृजेरिति दया० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्य:।
यजाम देवान् यदि शक्नवाम, मा ज्यायस:शंसमा वृक्षि देवा: ।। ऋ• १.२७.१३
वैदिक भजन११५२ वां
यमनकल्याण
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल कहरवा
भाग १
सामाजिक प्राणी मनुष्य हैं हम
शिष्टाचार हमारा
लगता है सबको प्यारा
लगता है सबको प्यारा
अभिवादन आपस में करते हम
अन्तर्मन है न्यारा
विनम्रता धन है हमारा,
है शिष्टाचार हमारा
प्रणाम नमस्ते(४)
राज्याधिकारी माता-पिता गुरु
अतिथि साधु सन्यासी (२)
शिशु युवक वृद्ध व कुमार विद्यार्थी
स्वामी सेवक नाती(२)
श्रद्धा और प्रेम से मिलाप करते
भाव नमन का प्यारा
है शिष्टाचार हमारा(२)
प्रणाम नमस्ते (४)
ये अभिवादन का भाव ललित है
शब्द है 'वैदिक नमस्ते' (२)
अत्यन्त हृदयग्राही यह शब्द है
नित्य अभिवादन करते(२)
हम छोटे-बड़े श्रद्धा प्रगटाते
भाव सौहार्द का सारा ।।
है शिष्टाचार हमारा(२)
प्रणाम नमस्ते (४)
ये नम: न केवल शुभकामना है
संग है कर्तव्य पालन (२)
और एक दूजे की उन्नति-कामना
प्रेम और स्नेह का साधन(२)
अन्त:स्तल में जो चमकता है
प्रेम- आदर का सितारा
है शिष्टाचार हमारा
प्रणाम नमस्ते(४)
भाग २
सामाजिक प्राणी मनुष्य है हम
शिष्टाचार हमारा
लगता है सबको प्यारा
लगता है सबको प्यारा
अभिवादन आपस में करते हम
अन्तर्मन है न्यारा
विनम्रता धन है हमारा
है शिष्टाचार हमारा (२)
प्रणाम नमस्ते(४)
हे राष्ट्र के विद्यावृद्ध गुणवृद्ध
महान नर और नारियों (२)
उपदेशामृत वर्षक जन-मन के
वीतराग सन्यासियो(२)
हे शिरोमणि विद्वान तपोनिष्ठ
नमन है तुमको हमारा
है शिष्टाचार हमारा (२)
प्रणाम नमस्ते (४)
हे निश्छल भावभंगियो बालको,
बाल क्रीड़ाओं के शिशुओ (२)
हे गुरु शिष्यो ब्रह्मचार्यो
तुम्हें नमन है तपस्वियो(२)
हे बली साहसी ओजस्वियो
तुम हो नमन की धारा।।
है शिष्टाचार हमारा (२)
प्रणाम नमस्ते(४)
समस्त बालक युवक वृद्ध हो
अर्चनीय देव हमारे (२)
इन्हें स्नेह- सत्कार मैं दे दूंगा
सेवा योग्य हैं प्यारे (२)
छोटे बड़े जो प्रियजन हैं
उन्हें हृदय- नमन का वारा।।
है शिष्टाचार हमारा
प्रणाम नमस्ते(४)
सामाजिक...............
शब्दार्थ:-
ललित= सुन्दर, मनोहर, कोमल
सौहार्द= मैत्री, दोस्ती, सद्भाव
हृदयग्राही =हृदय में ग्रहण करने योग्य
गुणवृद्ध= गुणों से भरा
वीतराग=राग रहित, आसक्ति त्यागा हुआ
शिरोमणि= माननीय और श्रेष्ठ व्यक्ति
तपोनिष्ठ= तप में लीन
निष्छल= बिना छल कपट का
भावभंगी= मन का भाव प्रकट करने वाला
क्रीड़ा= खेल
अर्चनीय= पूज्य, वंदनीय, उपासनीय
वारा= न्योछावर किया हुआ
🕉🧘♂️द्वितीय श्रृंखला का १४५ वां वैदिक भजन
और अब तक का वैदिक ११५२ वां भजन🙏
🕉 वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !🙏
Vyakhya
बड़े छोटे को नमः
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे अन्यों के प्रति अभिवादन आदि उचित शिष्टाचार का पालन करना होता है। मैं भी बड़े छोटे सबको अभिवादन करता हूं;कृत्रिम और दिखावटी नहीं किन्तु अंतर्मन से 'नमः' करता हूं। 'नम:' का मूल अर्थ है झुकना।झुकना सर से भी होता है,मन से भी। राजा, राज्य अधिकारी, माता-पिता, गुरु, अतिथि, साधु, सन्यासी, शिशु, कुमार, विद्यार्थी, युवक, वृद्ध, स्वामी, सेवक प्रत्येक से मिलने पर हृदय में जो आदर, श्रद्धा, प्रेम आशीर्वाद,आदि के भाव उत्पन्न होते हैं, वे सब 'नम:' के अन्दर समाविष्ट हैं। अतःअभिवादन के लिए वैदिक 'नमस्ते' शब्द अत्यंत हृदयग्राही और उपयुक्त है । जब छोटा बड़े को नमस्ते करता है । तब वह बड़े के प्रति अपने हृदय के सम्मान और अपनी श्रद्धा को प्रकट करता है। प्रत्युत्तर में बड़े द्वारा छोटे को 'नमस्ते' कहने में उसके अंत स्तल में निहित प्रेम और आशीर्वाद उमड़कर प्रवाहित होता रहा है। समान द्वारा सामान को 'नमस्ते'कहने में पारस्परिक सौहार्द और एक दूसरे की उन्नति की कामना व्यक्त होती है। साथ ही नमः में केवल शुभकामना ही नहीं प्रत्युत बड़े छोटे सबके प्रति कर्तव्य पालन का भाव भी निहित है।
हे राष्ट्र के विद्यार्थी और गुण वृद्धि महान नर नारियो ! हे उपदेशामृत- वर्षा से जनता को तृप्त करने वाले वीतराग सन्यासियो ! हे विद्वच्छिरोमणि तपोनिष्ठ वानप्रस्थ आचार्यो! हे देश के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को उद्यत महावीरो! हे जनता जनार्दन की सेवा में तत्पर महापुरुषों! 'तुम्हें नमः' ! हे निश्छल भावभंगियों और बालक क्रिड़ाओं से मन को मुदित करने वाले बोध शिशुओ ! हे अल्प वयस्क कुमारो ! हे गुरु के अधीन विद्या अध्ययन में रत तपस्वी, व्रत ब्रह्मचारियों!तुम्हें नमः। हे अपने संकल्प बल से भूमि आकाश को झुका देने वाले ब,ली साहसी, ओजस्वी विजयी युवकों ! तुम्हें नमः। है परिपक्व, धीर गम्भीर, अनुभवी धन्य, वन्दनीय वयोवृद्ध जनों !तुम्हें नमः।
समस्त बालक, युवक, वृद्ध मेरे अर्चनीय देव हैं। जहां तक संभव होगा मैं इन्हें स्नेह-सत्कार दूंगा, इनकी सेवा करूंगा। यह भी ध्यान रखूंगा कि जो मुझसे बड़े हैं उनकी शंसना में, उनके उपकार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन में मुझसे कोई त्रुटि न होगी।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात ईश्वराचा हा उपदेश आहे की माणसांनी अभिमानाचा त्याग करून अन्न इत्यादींनी सर्व उत्तम लोकांचा सत्कार करावा. अर्थात धन इत्यादींनी आपले सामर्थ्य असेल त्याप्रमाणे विद्वानांचा सत्कार व संग करून विद्या प्राप्त करावी. त्यांची कधी निंदा करू नये. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Brilliant scholars of eminence, saints and sages, we offer homage and hospitality to great scholars, love and hospitality to beginners, reverence and hospitality to youthful scholars, homage and hospitality to veterans of knowledge and wisdom. We do homage, reverence and service to the noble and brilliant people and to the divinities of nature as far as we can make it possible. You must not, no one should, malign or uproot the honour and reputation of the great and generous power and people.
Subject of the mantra
Now, in this mantra, it has been promulgated that hospitable treatment must be given to all.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (devāḥ)=promulgator of all disciplines, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (vayam)=we, (mahadbhyaḥ)=of fully qualified scholars, (annam)=food, (yajᾱma)=entertain by providing, (yajāma)=respect by giving, (evam)=in the same way, (arbhakebhyaḥ)=low merit students, (namaḥ) satkāra ke liye aura (yuvabhyaḥ)=those who are scholars with the strength of youth, (namaḥ)=for the sake of fulfillment, be honored by giving food, (āśinebhyaḥ)=the old scholars who are pervasive in all the disciplines, (ca)=as well, (namaḥ)=food for the hospitality, (dadantaḥ)=providing, (vayam)=we, (yadi)=who in favourable view, (śaknavāma)=if able, (jyāyasaḥ)=superior to the best qualities of knowledge etc. (devān)=to the scholars, (ā)=well, (yajāma)=give, [hama]=we, (samantāt) acche prakāra se (vidyādānam)=endowment of knowledge, (kuryāma)=must do, (evam)=in the same way, (pratijanaḥ)=every person whose, (eteṣām)=of these, (śaṃsam)= we praise with the group of doxology of Vedas, to them, [use]=to Him, (aham)=I, (mā)=I must never, (vṛkṣi)=relinquish.
English Translation (K.K.V.)
O promulgator of all disciplines, scholars! We entertain by providing the food for fully qualified scholars. In the same way, to low merit students and to those who are scholars with the strength of youth, for the sake of fulfillment be respected with giving food. We accept the senior scholars who are pervasive in all the disciplines, providing food for hospitality treatment, as well, for whom in favourable view, if able to the superior to the best qualities of knowledge et cetera to the scholar. We must do endowment of knowledge well, In the same way, I will never relinquish those, whom we praise with the group of doxology of Vedas.
Footnote
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In the last hymn, there is a description of Agni; there are scholars who know it well, by describing it here, one should know the association of this twenty-seventh hymn with the twenty-sixth hymn.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra, it is the preaching of God that all the good duties should be done by human beings, leaving pride aside. Such God preaches that as long as there is one's ability, scholars should be respected regularly, never condemn them.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
All should be respected is taught in the 13th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O educated persons, we respect highly learned men and give them food. We respect students of lesser virtues with food and satisfy them. We show honor to young and mighty persons and we revere old enlightened persons. We respect all to the best of our ability. May we not omit the praise of elderly wise men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( नमः) सत्करणम् अन्नं वा नमः इत्यन्ननाम ( निघ० २.७) = Respect and food. (अर्भकेभ्मः) अल्पगुणेभ्यः विद्यार्थिभ्यः | = For students of lesser age and virtues. (आशिनेभ्य: ) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः । = For highly enlightened elderly people. (देव:) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्याः तत्सम्बुद्धौ । = O learned persons throwing light on all sciences.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God commands that men should be free from all pride and respect all with food and other articles. One should have association with the learned and always respect them to the best of one's ability and power. They should never be censured. This hymn has great connection with the previous hymn as in it the learned men's attributes are mentioned. Here ends 27th hymn of the first Mandala.
Translator's Notes
This mantra clearly shows that due respect should be duly shown to all and none should be hated. This use of नम:for अर्भकेभ्यः (children and students) is particularly significant. (देवा:) विद्वांसो हि देवा: (शतपथ ३.७.३.१०) । = Learned persons are called devas. नमः has been interpreted by Rishi Dayananda as सत्करणम् अन्नं वा, सेवा It is derived from गम्-प्रहीभावे and in the Nighantu 5.5 it is stated नमस्यति: परिचरणकर्मा ( निघ० ३.५ ) So it means to bow in respect and to serve. In Nighantu 2-7 it is stated नमः इत्यन्ननाम ( निघ० २.७ ) So it is the name of food also. So Rishi Dayananda's interpretation is well-authenticated.
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