ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
तं त्वा॒ वाजे॑षु वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् । वा॒जया॑मः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । धना॑नाम् । इ॒न्द्र॒ । सा॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो। धनानामिन्द्र सातये॥
स्वर रहित पद पाठतम्। त्वा। वाजेषु। वाजिनम्। वाजयामः। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। धनानाम्। इन्द्र। सातये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरिन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अन्वयः
हे शतक्रतो इन्द्र जगदीश्वरं ! वयं धनानां सातये वाजेषु वाजिनं तं पूर्वोक्तमिन्द्रं परमेश्वरं त्वामेव सर्वान्मनुष्यान्प्रति वाजयामो विज्ञापयामः॥९॥
पदार्थः
(तम्) इन्द्रं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (वाजेषु) युद्धेषु (वाजिनम्) विजयप्रापकम्। वाजिन इति पदनामसु पठितत्वात्प्राप्त्यर्थोऽत्र गृह्यते। (वाजयामः) विज्ञापयामः। वज गतावित्यन्तर्गतण्यर्थेन ज्ञापनार्थोऽत्र गृह्यते। (शतक्रतो) शतेष्वसंख्यातेषु वस्तुषु क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। क्रतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धनानाम्) पूर्णविद्याराज्यादिसाध्यपदार्थानाम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन् ! (सातये) सुखार्थं सम्यक्सेवनाय॥९॥
भावार्थः
यो दुष्टान् युद्धेन निर्बलान् कृत्वा जितेन्द्रियो विद्वान् भूत्वा जगदीश्वराज्ञां पालयति, स एव मनुष्यो धनानि विजयं च प्राप्नोतीति॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर इन्द्र शब्द से अगले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे (शतक्रतो) असंख्यात वस्तुओं में विज्ञान रखनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्यवान् जगदीश्वर ! हम लोग (धनानाम्) पूर्ण विद्या और राज्य को सिद्ध करनेवाले पदार्थों का (सातये) सुखभोग वा अच्छे प्रकार सेवन करने के लिये (वाजेषु) युद्धादि व्यवहारों में (वाजिनम्) विजय करानेवाले और (तम्) उक्त गुणयुक्त (त्वा) आपको ही (वाजयामः) नित्य प्रति जानने और जनाने का प्रयत्न करते हैं॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य दुष्टों को युद्ध से निर्बल करता तथा जितेन्द्रिय वा विद्वान् होकर जगदीश्वर की आज्ञा का पालन करता है, वही उत्तम धन वा युद्ध में विजय को अर्थात् सब शत्रुओं को जीतनेवाला होता है॥९॥
विषय
धन - संभजन
पदार्थ
१. हे (शतक्रतो) - अनन्त प्रज्ञान व कर्मवाले प्रभो ! (वाजेषु) - काम - क्रोधादि के साथ संग्रामों में (वाजिनम्) - प्रशस्त शक्ति को देनेवाले (तं त्वा) - उस आपको हम (वाजयामः) अर्चित करते हैं [वाजयति - अर्चति - निरु०] । वस्तुतः कोई भी व्यक्ति इस अध्यात्म - संग्राम में प्रभु के उपासन से ही शक्ति को प्राप्त करता है ; जीव स्वयं इन प्रबल शत्रुओं को जीत नहीं सकता । ["त्वया स्विद् युजा वयम्' प्रभुरूप मित्र के साथ ही हम इनको जीत पाते हैं] ।
२. हे (इन्द्रः) परमैश्वर्यशाली प्रभो ! इन कामादि शत्रुओं को जीतकर (धनानां सातये) - धनों की प्राप्ति के लिए भी हम आपकी ही अर्चना करते हैं । आपने ही हमें वे सब वस्तुएँ प्राप्त करानी हैं जिनसे कि मनुष्य धन्य बनता है । 'शरीर का स्वास्थ्य , मन का नैर्मल्य व बुद्धि की तीव्रता' ये सब प्रभु - कृपा से ही हमें प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमें अध्यात्मसंग्रामों में विजयी बनाते हैं और धन प्राप्त कराते हैं ।
विषय
फिर इन्द्र शब्द से इस मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शतक्रतो इन्द्र जगदीश्वरं ! वयं धनानां सातये वाजेषु वाजिनं तं पूर्वोक्तम् इन्द्रं परमेश्वरं त्वां एव सर्वान् मनुष्यान् प्रति वाजयामः विज्ञापयामः॥९॥
पदार्थ
-हे (शतक्रतो) शतेष्वसंख्यातेषु वस्तुषु क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ=असंख्यात वस्तुओं का विज्ञान रखने वाले, (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन्=जगदीश्वर, (वयम्)=हम, (धनानाम्) पूर्णविद्याराज्यादिसाध्यपदार्थानाम्=पूर्ण विद्या, राज्य आदि साध्य पदार्थों को, (सातये) सुखार्थं सम्यक्सेवनाय=सुखभोग या अच्छे प्रकार से सेवन के लिये, (वाजेषु) युद्धेषु=युद्धों में, (वाजिनम्) विजयप्रापकम् =विजय प्राप्त कराने वाले, (तम्)=उनको, (पूर्वोक्तम्)=पहले कहे गये, (इन्द्रम्)=इन्द्र को, (परमेश्वरम्)=परमेश्वर, (त्वाम्)=तुमको, (एव)=ही, (सर्वान्)=सब, (मनुष्यान्)= मनुष्यों के, (प्रति)=प्रति, (वाजयामः) विज्ञापयामः=जानने और जनाने का प्रयत्न करते हैं।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो मनुष्य दुष्टों को युद्ध से निर्बल करता तथा जितेन्द्रिय वा विद्वान् होकर जगदीश्वर की आज्ञा का पालन करता है, वही उत्तम धन वा युद्ध में विजय को अर्थात् सब शत्रुओं को जीतनेवाला होता है॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शतक्रतो) असंख्यात वस्तुओं का विज्ञान रखने वाले (इन्द्र) परमेश्वर! (वयम्) हम (धनानाम्) धनों को (सातये) सुखभोग या अच्छे प्रकार से सेवन के लिये (वाजेषु) युद्धों में (वाजिनम्) विजय प्राप्त कराने वाले (तम्) उन (पूर्वोक्तम्) पहले कहे गये (इन्द्रम्) परमेश्वर (त्वाम्) तुमको (एव) ही (सर्वान्) सब (मनुष्यान्) मनुष्यों के (प्रति) प्रति (वाजयामः) जानने और जनाने का प्रयत्न करते हैं।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तम्) इन्द्रं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (वाजेषु) युद्धेषु (वाजिनम्) विजयप्रापकम्। वाजिन इति पदनामसु पठितत्वात्प्राप्त्यर्थोऽत्र गृह्यते। (वाजयामः) विज्ञापयामः। वज गतावित्यन्तर्गतण्यर्थेन ज्ञापनार्थोऽत्र गृह्यते। (शतक्रतो) शतेष्वसंख्यातेषु वस्तुषु क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। क्रतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धनानाम्) पूर्णविद्याराज्यादिसाध्यपदार्थानाम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन् ! (सातये) सुखार्थं सम्यक्सेवनाय॥९॥
विषयः- पुनरिन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
विषय(भाषा)- फिर इन्द्र शब्द से इस मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है।
अन्वयः- हे शतक्रतो इन्द्र जगदीश्वरं ! वयं धनानां सातये वाजेषु वाजिनं तं पूर्वोक्तमिन्द्रं परमेश्वरं त्वामेव सर्वान्मनुष्यान्प्रति वाजयामो विज्ञापयामः॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो दुष्टान् युद्धेन निर्बलान् कृत्वा जितेन्द्रियो विद्वान् भूत्वा जगदीश्वराज्ञां पालयति, स एव मनुष्यो धनानि विजयं च प्राप्नोतीति॥९॥
विषय
राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे ( शतक्रतो ) सैकड़ों सामर्थ्यवान् राजन् ! ( वाजेषु ) संग्रामों में ( वाजिनं ) विजय प्राप्त कराने वाले ऐश्वर्यवान्, ( तं त्वा ) उस तुझको हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशक ! ( धनानां सातये ) धनों के प्राप्त करने के लिये ( वाजयामः ) आदरपूर्वक प्रार्थना करते हैं, तुझे ऐश्वर्य पद से विभूषित करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस दुष्टांना युद्धाने निर्बल करतो व जितेन्द्रिय, विद्वान बनून जगदीश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतो, तोच उत्तम धन प्राप्त करतो व युद्धात विजय मिळवून सर्व शत्रूंना जिंकणारा असतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, lord of light and power, hero of a hundred yajnic creations, we celebrate your glory of speed and success in the battles of humanity for the achievement of the wealth of life and prosperity of the people.
Subject of the mantra
Again, by word ‘Indra’ God has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śatakrato)=having specific knowledge of innumerable things, (indra)=to God, (vayam)=we, (dhanānām)=to wealth, (sātaye)=for enjoying delight or consuming in agood way, (vājeṣu)=in battles, (vājinam)= those getting victory, (tam)= to them, (pūrvoktam)=afore said, (indram)=to God, (tvām+eva)= to you only, (sarvān)=to all, (manuṣyān)=of men, (prati)= towards, (vājayāmaḥ)=try to know and teach.
English Translation (K.K.V.)
He=O! (śatakrato)=having specific knowledge of innumerable things, (indra)=to God, (vayam)=we, (dhanānām)=to wealth, (sātaye)=for enjoying delight or consuming in agood way, (vājeṣu)=in battles, (vājinam)= those getting victory, (tam)= to them, (pūrvoktam)=afore said, (indram)=to God, (tvām+eva)= to you only, (sarvān)=to all, (manuṣyān)=of men, (prati)= towards, (vājayāmaḥ)=try to know and teach.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The one who weakens the wicked by war and obeys God’s command by becoming a seer or a scholar, he is the one who wins the best wealth or victory in war, he is, the conqueror of all enemies.
Translation
O Lord, the embodiment of selfless actions, we invoke you in the grim battle of life to obtain success and true prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now again by Indra, God is meant.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Omniscient God, we give Thy knowledge to all people for the acquirement of all things to be obtained through knowledge and kingdom etc. so that we may use them properly and enjoy happiness. It is Thou who givest victory to righteous persons in their battles with the wicked.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only that learned person acquires wealth and is victorious who makes un-righteous weak or powerless and having controlled his senses, obeys God's commands.
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