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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 46/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वा॒व॒सा॒ना वि॒वस्व॑ति॒ सोम॑स्य पी॒त्या गि॒रा । म॒नु॒ष्वच्छं॑भू॒ आ ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒व॒सा॒ना । वि॒वस्व॑ति । सोम॑स्य । पी॒त्या । गि॒रा । म॒नु॒ष्वत् । श॒म्भू॒ इति॑ शम्ऽभू । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्वच्छंभू आ गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वावसाना । विवस्वति । सोमस्य । पीत्या । गिरा । मनुष्वत् । शम्भू इति शम्भू । आ । गतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 46; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वावसाना) सुखेष्वतिशयेन वस्तारौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (विवस्वति) सूर्य्ये (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (पीत्या) रक्षिकया क्रियया। अत्र पारक्षणइत्यस्मात् क्तिन्# (गिरा) वाण्या (मनुष्वत्) यथा मनुष्या रक्षन्ति तद्वत् (शम्भू) सुखं भावुकौ (आ) समन्तात् (गतम्) प्राप्नुतम् ॥१३॥ #[स्थागापापचो भावे, अ० ३।३।९५ इत्यनेन वा। सं०]

    अन्वयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे वावसाना शम्भू अध्यापकोपदेशकौ ! युवां विवस्वति सोमस्य पीत्या गिराऽस्मान्मनुष्वदागतम् ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं यथा परोपकारिणो जनाः प्राणिनां निवासविद्याप्रकाशदानेन सुखानि भावयन्ति तथैव सर्वेभ्यो बहूनि सुखानि संपादयतेति ॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (वावसाना) अत्यन्त सुख में वसाने (शम्भू) सुखों के उत्पन्न करनेवाले पढ़ाने और सत्य के उपदेश करनेहारे ! आप (विवस्वति) सूर्य्य के प्रकाश में (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के मध्य में (पीत्या) रक्षा रूपी क्रिया वा (गिरा) वाणी से हमको (मनुष्वत्) रक्षा करनेहारे मनुष्यों के तुल्य (आ) (गतम्) सब प्रकार प्राप्त हूजिये ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जिस प्रकार परोपकारी मनुष्य प्राणियों के निवास और विद्याप्रकाश के दान से सुखों को प्राप्त कराते हैं वैसे तुम भी उन को प्राप्त कराओ ॥१३॥

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    विषय

    शम का भावन

    पदार्थ

    १. (शम्भू) - शान्ति व कल्याण के उत्पन्न करनेवाले प्रभो ! (मनुष्वत्) - [मनौ इव] विचारशील की भाँति (विवस्वति) - परिचरण व उपासना करनेवाले यजमान में (वावसाना) - निवास करनेवाले आप (सोमस्य पीत्या) - सोम के पान हेतु से तथा (गिरा) - ज्ञान की वाणियों के हेतु से (आगतम्) - हमें प्राप्त होओ । 
    २. 'मनुष्वत् तथा विवस्वति' - ये शब्द इस भाव को सुव्यक्त कर रहे हैं कि प्राणसाधनावाला मनुष्य 'ज्ञानसम्पन्न व उपासनावाला' बनता ही है । 
    ३. शम्भू' शब्द प्राणसाधना से रोगों व वासनाओं के शान्त होने का संकेत कर रहा है । 
    ४. प्राणसाधना से शरीर में सोम का रक्षण होता है [सोमस्य पीत्या] और ज्ञान की वृद्धि होती है [गिरा] । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से रोग व वासनाएँ शान्त होती हैं, ज्ञान व उपासना की वृद्धि होती है । 
     

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    विषय

    ताल और प्रतिक्षेपक द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि ।

    भावार्थ

    (विवस्वति) सूर्य के आधार पर (वावसाना) रहनेवाले दिन और रात्रि जिस प्रकार (सोमस्य पीत्या) जल और वायु के पान, या उपभोग द्वारा (शम्भू) शान्ति सुखप्रद होते हैं उसी प्रकार (विवस्वति) विविध शिष्यों या अन्तेवासी छात्रों के स्वामी, अथवा विशेष ब्रह्मचर्यादि के पालनार्थ रहने योग्य आचार्य गुरु के अधीन (वावसाना) नित्य नियम से रहने वाले स्त्री और पुरुष कन्या और कुमार दोनों (सोमस्य) वीर्य के (पीत्या) पालन और (गिरा) वेदवाणी के अभ्यास द्वारा (मनुष्यत्) मननशील ज्ञानवाले होकर जन साधारण को (शम्भू) शान्तिदायक एवं कल्याणकारी सौम्य होकर (आ गतम्) घरों को आवें। इसी प्रकार राज वर्ग और प्रजावर्ग दोनों तेजस्वी राजा के आश्रय पर राष्ट्र के भोग और पालन द्वारा ज्ञानी पुरुषों से युक्त होकर शान्तिदायक हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१५ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्द—१, १० विराड्गायत्री । ३, ११, ६, १२, १४ गायत्री । ५, ७, ९, १३, १५, २, ४, ८ निचृद्गायत्री ॥

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    विषय

    फिर वे अध्यापक और उपदेशक कैसे हैं इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे वावसाना शम्भू अध्यापकोपदेशकौ ! युवां विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा अस्मान् मनुष्वत् आ गतम् ॥१३॥

    पदार्थ

    हे (वावसाना) सुखेष्वतिशयेन वस्तारौ= अत्यन्त सुख में रहनेवाले, (शम्भू) सुखं भावुकौ= सुखी, (अध्यापकोपदेशकौ)= अध्यापक और उपदेशक ! (युवाम्)=तुम दोनों, (विवस्वति) सूर्य्ये=सूर्य से, (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये=उत्पन्न हुए जगत् के मध्य में, (पीत्या) रक्षिकया क्रियया= रक्षा रूपी क्रिया से, (गिरा) वाण्या=वाणी के द्वारा, (अस्मान्)=हमारी, (मनुष्वत्) यथा मनुष्या रक्षन्ति तद्वत्=जैसे मनुष्य रक्षा करते हैं, वैसे, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (गतम्) प्राप्नुतम्=प्राप्त हूजिये ॥१३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे मनुष्यो ! तुम जिस प्रकार परोपकारी मनुष्य प्राणियों को निवास, विद्या और के प्रकाश के दान से सुखी करते हैं, वैसे ही सभी को बहुत से सुख प्राप्त कराओ ॥१३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (वावसाना) अत्यन्त सुख में रहनेवाले, (शम्भू) सुखी (अध्यापकोपदेशकौ) अध्यापक और उपदेशक ! (युवाम्) तुम दोनों (विवस्वति) सूर्य से (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के मध्य में, (पीत्या) रक्षा रूपी क्रिया से, (गिरा) वाणी के द्वारा (अस्मान्) हमारी (मनुष्वत्) मनुष्य के समान रक्षा करते हैं, वैसे ही (आ) हर ओर से (गतम्) [रक्षा करते हुए], हमें प्राप्त हूजिये ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं यथा परोपकारिणो जनाः प्राणिनां निवासविद्याप्रकाशदानेन सुखानि भावयन्ति तथैव सर्वेभ्यो बहूनि सुखानि संपादयतेति ॥१३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वावसाना) सुखेष्वतिशयेन वस्तारौ। अत्र सुपांसुलुग् इत्याकारादेशः। (विवस्वति) सूर्य्ये (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (पीत्या) रक्षिकया क्रियया। अत्र पारक्षणइत्यस्मात् क्तिन्# (गिरा) वाण्या (मनुष्वत्) यथा मनुष्या रक्षन्ति तद्वत् (शम्भू) सुखं भावुकौ (आ) समन्तात् (गतम्) प्राप्नुतम् ॥१३॥ #[स्थागापापचो भावे, अ० ३।३।९५ इत्यनेन वा। सं०] विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे वावसाना शम्भू अध्यापकोपदेशकौ ! युवां विवस्वति सोमस्य पीत्या गिराऽस्मान्मनुष्वदागतम् ॥१३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही ज्या प्रकारे परोपकारी मनुष्य प्राण्यांकडून निवास व विद्या प्रकाशाच्या दानाने सुख प्राप्त करवून घेता तसे तुम्हीही त्यांना सुख प्राप्त करवून द्या. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, blissful powers of nature and humanity, living and working in the light of the sun, come to us like our own men, bringing with you the love and protection of Soma, lord of happiness and glory, along with the voice of the Divine.

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    Subject of the mantra

    Then how those teachers and preachers are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vāvasānā)=living very happily (śambhū)=happy, (adhyāpakopadeśakau)=teacher and preacher, (yuvām) =both of you, (vivasvati)=from the Sun, (somasya)=In the midst of the born world, (pītyā)=through defensive action, (girā) =by the speech, (asmān) =our,(manuṣvat) protects like a man, in the same way, (ā) =from all sides, (gatam)=get us obtained, [rakṣā karate hue]= while protecting.

    English Translation (K.K.V.)

    O one who lives in great happiness, happy teacher and preacher! Both of you, born of the Sun, in the middle of the world, protect us like a human being by speech, by action in the form of protection, in the same way, protecting us from all sides, come to us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! The way you philanthropic, make human beings happy with the endownment of residence, knowledge and light, so give everyone many delights.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are these (Ashivanu) is further taught in the 13th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers, O bringers of happiness and peace who are dwellers in joy yourselves, come to us in the light of the sun, in this world with your protective activity and noble speech like thoughtful person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वावसाना) सुखेषु अतिशयेन वस्तारौ अत्र सुपां सुलुक इत्याकारादेश: = Dwellers in joy-Joyous. ( विवस्वति) सूर्ये-सूर्यप्रकाशे = In the light of the sun. (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये = In the world. (पीत्या) रक्षिकया क्रियया = With protective activity. ( मनुष्वत् ) यथा मनुष्या रक्षन्ति तद्वत् = Like a thoughtful man.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should cause happiness to all like benevolent who make others happy, by giving them place of residence, knowledge and light.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted मनुष्वत् as क्या मनुष्या रक्षन्ति तद्वत् । It is in accordance with and on the authority of the passages from the Brahmanas like ये विद्वांसस्ते मनवः । ( शत० ८.६.३.१८ ) अग्निहोता मनुवृत: अयम् अग्निहि सर्वतो मनुष्यैवृत: (ऐतरेय २.३४) मनु:-मनुष्यः । Other translators like Sayanacharya and Prof. Wilson have taken Manu here as the name of a particular King which is not correct, being opposed to the fundamental principles of the Vedic terminology as pointed out before. Even Sayanacharya has given the etymology of Manu. मन-ज्ञाने मन्यते जानातीति मनुः बहुलवचनादौणादिक: उसि प्रत्ययः । Venkata Madhava in his short commentary has translated मनुष्यवत् as रनवत् at first; but later on as an alternative has erroneously given the meaning of अपि वा मनोरिव यज्ञे । It is Rishi Dayananda alone, who has been consistent through out, unlike other commentators or translators. तयोः सकाशात् किं प्राप्नुयुरित्याह

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