ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 58/ मन्त्र 9
भवा॒ वरू॑थं गृण॒ते वि॑भावो॒ भवा॑ मघवन्म॒घव॑द्भ्यः॒ शर्म॑। उ॒रु॒ष्याग्ने॒ अंह॑सो गृ॒णन्तं॑ प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठभव॑ । वरू॑थम् । गृ॒ण॒ते । वि॒भा॒ऽवः॒ । भव॑ । म॒घ॒व॒न् । म॒घव॑त्ऽभ्यः । शर्म॑ । उ॒रु॒ष्य । अ॒ग्ने॒ । अंह॑सः । गृ॒णन्त॑म् । प्रा॒तः । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सुः । ज॒ग॒म्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
भवा वरूथं गृणते विभावो भवा मघवन्मघवद्भ्यः शर्म। उरुष्याग्ने अंहसो गृणन्तं प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठभव। वरूथम्। गृणते। विभाऽवः। भव। मघवन्। मघवत्ऽभ्यः। शर्म। उरुष्य। अग्ने। अंहसः। गृणन्तम्। प्रातः। मक्षु। धियाऽवसुः। जगम्यात् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 58; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स सभेशः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मघवन्नग्ने विद्वँस्त्वं गृणते मघवद्भ्यश्च वरूथं विभावो विभावय शर्म च गृणन्तमंहसो मक्षूरुष्य पाहि त्वमप्यंहसः पृथग्भव यो धियावसुरेवं प्रातः प्रतिदिनं प्रजारक्षणं विधत्ते, स सुखानि जगम्याद् भृशं प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥
पदार्थः
(भव) (वरूथम्) गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (गृणते) गुणान् कीर्तयते (विभावः) विभावय (भव) अत्रोभयत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मघवन्) परमधनवन् (मघवद्भ्यः) विद्यादिधनयुक्तेभ्यः (शर्म) सुखम् (उरुष्य) पाहि (अग्ने) विज्ञानादियुक्त (अंहसः) पापात् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (प्रातः) दिनारम्भे (मक्षु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनु० (अष्टा०६.३.१३३) इति दीर्घः। (धियावसुः) धिया कर्मणा प्रज्ञया वा वासयितुं योग्यः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यो विद्वान् धर्मविनयाभ्यां सर्वाः प्रजाः प्रशास्य पालयेत्, स एव सभाद्यध्यक्षः स्वीकार्य्यः ॥ ९ ॥ ।अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभापति कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (मघवन्) उत्तम धनवाले (अग्ने) विज्ञान आदि गुणयुक्त सभाध्यक्ष विद्वन् ! तू (गृणते) गुणों के कीर्त्तन करनेवाले और (मघवद्भ्यः) विद्यादि धनयुक्त विद्वानों के लिये (वरूथम्) घर को और (शर्म) सुख को (विभावः) प्राप्त कीजिये तथा आप भी घर और सुख को (भव) प्राप्त हो (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए मनुष्य को (अंहसः) पाप से (मक्षु) शीघ्र (उरुष्य) रक्षा कीजिये आप भी पाप से अलग (भव) हूजिये, ऐसा जो (धियावसुः) प्रज्ञा वा कर्म से वास कराने योग्य (प्रातः) प्रतिदिन प्रजा की रक्षा करता है, वह सुखों को (जगम्यात्) अतिशय करके प्राप्त होवे ॥ ९ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो विद्वान् धर्म वा विनय से सब प्रजा को शिक्षा देकर पालना करता है, उसी को सभा आदि का अध्यक्ष करें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में अग्नि वा विद्वानों के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
वरूथ व शर्म
पदार्थ
१. हे (विभावः) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभो ! आप (गृणते) = स्तुति करनेवाले के लिए (वरूथम्) = अनिष्टनिवारक गृह अथवा कवच (भव) = होओ । प्रभु स्तोता के कवच बनते हैं और उस स्तोता को सब पापों व रोगों से बचाते हैं । २. हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों व यज्ञोंवाले प्रभो ! आप (मघवद्भ्यः) = ऐश्वर्यवालों व ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवालों के लिए (शर्म) = कल्याण व सुख को प्राप्त करानेवाले होते हैं । वस्तुतः ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग ही कल्याण का मार्ग है, अन्यथा ये ऐश्वर्य हमें विलास व अभिमान की ओर ले - जाते हैं और मानव - पतन का कारण बन जाते है । ३. हे (अग्ने) = परमात्मन् । (गृणन्तम्) = आपका स्तवन करनेवाले मुझको (अंहसः) = पाप से (उरुष्यः) = बचाइए । प्रभुस्तवन हममें उच्चवृत्ति को पैदा करके हमें निम्नमार्ग की ओर जाने से बचाता है । ४. हमें (प्रातः) = प्रातः काल (मक्षु) = शीघ्र ही (धियावसः) = [धी ज्ञान व कर्म] ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा वसुओं को [निवास के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त करानेवाला प्रभु (जगम्यात्) = प्राप्त हो । हम प्रातः काल प्रभु का 'धियावसुः' के रूप में ध्यान करें और उससे प्रेरणा व शक्ति लेकर ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगे रहें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे कवच हैं, हमारा कल्याण करनेवाले हैं, पाप के निवारक हैं और ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा वसुओं के देनेवाले हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ शक्ति व नीरोगता की प्राप्ति से है [१] इसके लिए हम मानवोचित भोजन करते हुए अजीर्णशक्ति बनें [२] । उत्तम सङ्ग से जीवन को उत्तम बनाएँ [३] । प्रभु का मार्ग आकर्षक है [४] । स्वादेन्द्रिय को जीतकर ही अक्षयलोक की ओर चला जा सकता है [५] । मनुष्यों में अपना परिपाक करनेवाले भृगु ही प्रभु का धारण करते हैं [६] । प्रभु - कृपा से हमें अध्वररूप रमणीय जीवन प्राप्त हो [७] । हमारे कल्याण अच्छिद्र हों [८] प्रभु हमारे वरूथ हों [९] । 'यह प्रभु ही महादेव हैं, अन्य देव तो इसके शाखामात्र हैं । इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (विभावः) विशेष प्रभायुक्त, तेजस्विन् ! हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! विद्वन् ! आत्मन् ! ( गृणते ) स्तुति करने हारे पुरुष के लिये ( वरूथं भव ) सब शत्रुओं के वारण करने वाले सैन्य के समान सब विघ्नों के दूर करने वाला और गृह के समान शरणप्रद ( भव ) हो । तू ( मघवद्भ्यः ) ऐश्वर्यवान्, विद्वानों और धनाढ्यों को भी (शर्म) सुख शान्तिदायक (भव) हो । तू ( अंहसः ) पाप और हत्या आदि पापाचरण करने हारे, दुष्ट पुरुष से भी हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! प्रतापिन् ! आचार्य ईश्वर ! राजन् ! ( गृणन्तम् ) स्तुति शील पुरुष की ( उरुष्य ) रक्षा कर । और ( प्रातः ) प्रातः काल ही ( धियावसुः ) ज्ञान और कर्म से हृदय में बसाने योग्य प्रभो ! और ज्ञान और उत्तम कर्म न्यायाचरण से ऐश्वर्य प्राप्त करने हारे राजन् ! बुद्धि और ज्ञान के धनी विद्वान् ! और (धिया) बुद्धि या मनो बल से प्राणों के स्वामिन् ! या ( धिया ) धारण करने वाली चिति रूप से देह में बसने हारे आत्मन् ! तू शीघ्र ही ( जगम्यात् ) हमें प्राप्त हो दर्शन दे । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ त्रिष्टुप् । ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराड् त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सभापति कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मघवन् अग्ने विद्वन् त्वं गृणते मघवद्भ्यः च वरूथं विभावः विभावय शर्म च गृणन्तम् अंहसः मक्षूः उरुष्य पाहि त्वम् अपि अंहसः पृथग् भव यः धियावसुः एवं प्रातः प्रतिदिनं प्रजारक्षणं विधत्ते, स सुखानि जगम्यात् भृशं प्राप्नुयात् ॥९॥
पदार्थ
हे (मघवन्) परमधनवन्= परम धनवान्, (अग्ने) विज्ञानादियुक्त=विज्ञान आदि युक्त, (विद्वन्)= विद्वान्! (त्वम्)=तुम, (गृणते) गुणान् कीर्तयते= गुणों का कीर्तन करते हो, (मघवद्भ्यः) विद्यादिधनयुक्तेभ्यः=विद्या आदि धनवाले के लिये, (च) =भी, (वरूथम्) गृहम्=गृह के, (विभावः) विभावय= सजावट, (च)=और, (शर्म) सुखम्=सुख की, (गृणन्तम्) स्तुवन्तम्=स्तुति करते हुए, (अंहसः) पापात्=पाप से, (मक्षु) शीघ्रम्=शीघ्र ही, (उरुष्य) पाहि =रक्षा करो, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (अंहसः) पापात्= पाप से, (पृथग्)=अलग, (भव) =होओ, (यः)=जो, (धियावसुः) धिया कर्मणा प्रज्ञया वा वासयितुं योग्यः=बुद्धि, कर्म और प्रज्ञा से रहने योग्य है, (एवम्)=ऐसे ही, (प्रातः) दिनारम्भे=दिन के आरम्भ, अर्थात् प्रातःकाल में, (प्रतिदिनम्)= प्रतिदिन, (प्रजारक्षणम्)= प्रजा की रक्षा के लिये, (विधत्ते)= प्रबंध करते हैं, (सः)=वह, (सुखानि)=सुखों को, (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात्= अतिशयता से प्राप्त करे।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस सूक्त में अग्नि वा विद्वानों के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मघवन्) परम धनवान्, (अग्ने) विशेष ज्ञान आदि युक्त (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (गृणते) गुणों का कीर्तन करते हो, (मघवद्भ्यः) विद्या आदि धनवाले के लिये (च) भी (वरूथम्) घर की (विभावः) सजावट (च) और (शर्म) सुख की (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए (अंहसः) पाप से (मक्षु) शीघ्र (उरुष्य) रक्षा करो। (त्वम्) तुम (अपि) भी (अंहसः) पाप से (पृथग्) अलग (भव) होओ। (यः) जो (धियावसुः) बुद्धि, कर्म और प्रज्ञा से रहने योग्य है, (एवम्) ऐसे (प्रातः) दिन के आरम्भ, अर्थात् प्रातःकाल में (प्रतिदिनम्) प्रतिदिन (प्रजारक्षणम्) प्रजा की रक्षा के लिये (विधत्ते) प्रबंध करता है. (सः) वह (सुखानि) सुखों को (जगम्यात्) अतिशयता से प्राप्त करे।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (भव) (वरूथम्) गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (गृणते) गुणान् कीर्तयते (विभावः) विभावय (भव) अत्रोभयत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मघवन्) परमधनवन् (मघवद्भ्यः) विद्यादिधनयुक्तेभ्यः (शर्म) सुखम् (उरुष्य) पाहि (अग्ने) विज्ञानादियुक्त (अंहसः) पापात् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (प्रातः) दिनारम्भे (मक्षु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनु० (अष्टा०६.३.१३३) इति दीर्घः। (धियावसुः) धिया कर्मणा प्रज्ञया वा वासयितुं योग्यः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् ॥९॥ विषयः- पुनः स सभेशः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मघवन्नग्ने विद्वँस्त्वं गृणते मघवद्भ्यश्च वरूथं विभावो विभावय शर्म च गृणन्तमंहसो मक्षूरुष्य पाहि त्वमप्यंहसः पृथग्भव यो धियावसुरेवं प्रातः प्रतिदिनं प्रजारक्षणं विधत्ते, स सुखानि जगम्याद् भृशं प्राप्नुयात् ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यो विद्वान् धर्मविनयाभ्यां सर्वाः प्रजाः प्रशास्य पालयेत्, स एव सभाद्यध्यक्षः स्वीकार्य्यः ॥९॥ अनुवादक कृत महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- जो विद्वान् धर्म और विनय से सब प्रजा का प्रशासन करके पालन करता है, उसी मनुष्यों के द्वारा सभा आदि का अध्यक्ष स्वीकार किया जाना चाहिए ॥९॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वान धर्म किंवा विनम्रतेने सर्व प्रजेला शिक्षण देऊन पालन करतो. त्यालाच माणसांनी सभा इत्यादीचा अध्यक्ष करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and brilliance you are, be a very home for the admirer. Lord of wealth and honour, be the very light and honour for the men of wealth and power. Save the devotee from sin and crime with protection from within and without. Agni, you are the lord of intelligence, wealth and knowledge, come post haste in the morning and bless me.
Subject of the mantra
Then how is that Chairman of the Assembly, this topic is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (maghavan) =most wealthy, (agne) = having special knowledge etc., (vidvan)=scholar, (tvam) =you, (gṛṇate) =you sing praises of virtues, (maghavadbhyaḥ) =for rich having knowledge etc., (ca) =also, (varūtham) =of the house (vibhāvaḥ)=decoration, (ca) =and, (śarma) =of happiness, (gṛṇantam)=while praising, (aṃhasaḥ) pāpa se (makṣu) śīghra (uruṣya) rakṣā karo| (tvam) =you, (api)=also, (aṃhasaḥ) =from the sin, (pṛthag)=apart, (bhava) =be, (yaḥ) =that, (dhiyāvasuḥ) =worth living through intelligence, action and wisdom, (evam) =such, (prātaḥ)=at the beginning of the day, i.e. in the morning, (pratidinam)=daily, (prajārakṣaṇam) =for the protect the people, (vidhatte)=makes arrangements,.. (saḥ) =that, (sukhāni) =pleasures, (jagamyāt) =Get it to excess.
English Translation (K.K.V.)
O most wealthy, having special knowledge etc. scholar! You sing praises of virtues, praise the decoration of the house and happiness even for those who have wealth, knowledge etc. and quickly protect them from sin. You too should be separated from sin. One who is capable of living with intelligence, action and wisdom, makes arrangements for the protection of the people every day at the beginning of the day, i.e. in the morning. May he enjoy excessive pleasures.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The learned person who administers and obeys all the subjects with religion and humility, should be accepted as the president of the meeting etc. by those people only. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- By describing the qualities of fire and scholars in this hymn, one should know the consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (in the form of the President of the Assembly) is taught in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned President of the Assembly possessing much wealth of knowledge, give shelter to those who admire virtues. Be giver of happiness to them who are possessors of the wealth of knowledge and wisdom and soon save them from sins. You should also keep yourself away from all sin. The man who possesses good knowledge, intelligence and the power of action and protects all people in the morning (everyday) enjoys much happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( वरूथम् ) गृहम् वरूथमिति गृहनाम ( निघ० ३.४) = Endowed with the wealth of knowledge etc. In this hymn, the attributes of the fire and electricity are mentioned, so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the fifty-eighth hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should accept that learned man to be the President of the Assembly etc. who being endowed with Dharma (righteousness) and humility governs well and protects all people.
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