ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदास्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स घा॒ तं वृष॑णं॒ रथ॒मधि॑ तिष्ठाति गो॒विद॑म्। यः पात्रं॑ हारियोज॒नं पू॒र्णमि॑न्द्र॒ चिके॑तति॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । घ॒ । तम् । वृष॑णम् । रथ॑म् । अधि॑ । ति॒ष्ठा॒ति॒ । गो॒विद॑म् । यः । पात्र॑म् । हा॒रि॒ऽयो॒ज॒नम् । पू॒र्णम् । इ॒न्द्र॒ । चिके॑तति । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा तं वृषणं रथमधि तिष्ठाति गोविदम्। यः पात्रं हारियोजनं पूर्णमिन्द्र चिकेतति योजा न्विन्द्र ते हरी ॥
स्वर रहित पद पाठसः। घ। तम्। वृषणम्। रथम्। अधि। तिष्ठाति। गोविदम्। यः। पात्रम्। हारिऽयोजनम्। पूर्णम्। इन्द्र। चिकेतति। योज। नु। इन्द्र। ते। हरी इति ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 82; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यो भवान् हारियोजनं पूर्णं पात्रं रथं चिकेतति, स त्वं तस्मिन् रथे हरी नु योज। हे इन्द्र ! यस्ते तं वृषणं गोविदं रथमधितिष्ठाति स घ कथं न विजयते ॥ ४ ॥
पदार्थः
(सः) विद्वान् वीरः (घ) एव (तम्) (वृषणम्) शत्रूणां शक्तिबन्धकम् (रथम्) ज्ञानम् (अधि) उपरि (तिष्ठाति) तिष्ठतु (गोविदम्) गां भूमिं विन्दति येन तम् (यः) (पात्रम्) पद्यते येन तत् (हारियोजनम्) हरयोऽश्वा युज्यन्ते यस्मिंस्तत् (पूर्णम्) समग्रशस्त्रास्त्रसामग्रीसहितम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (चिकेतति) जानाति (योज) अश्वैर्युक्तं कुरु (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (ते) तव (हरी) हरणशीलौ वेगाकर्षणाख्यावश्वौ ॥ ४ ॥
भावार्थः
सेनाध्यक्षेण पूर्णशिक्षाबलहर्षितां हस्त्यश्वरथशस्त्रादिसामग्रीपरिपूर्णां सेनां सम्पाद्य शत्रवो विजेयाः ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमविद्याधनयुक्त ! (यः) जो आप (हारियोजनम्) अग्नि वा घोड़ों से युक्त किये इस (पूर्णम्) सब सामग्री से युक्त (पात्रम्) रक्षा निमित्त (रथम्) रथ को बनाना (चिकेतति) जानते हो (सः) सो उस रथ में (हरी) वेगादिगुणयुक्त घोड़ों को (नु योज) शीघ्र युक्त कर। हे (इन्द्र) सेनापते ! जो (ते) आप के (वृषणम्) शत्रु के सामर्थ्य का नाशक (गोविदम्) जिससे भूमि का राज्य प्राप्त हो (तम्) उस रथ पर (अधितिष्ठाति) बैठे, (घ) वही विजय को प्राप्त क्यों न होवे ॥ ४ ॥
भावार्थ
सेनापति को योग्य है कि शिक्षा बल से हृष्ट-पुष्ट हाथी, घोड़े रथ, शस्त्र-अस्त्रादि सामग्री से पूर्ण सेना को प्राप्त करके शत्रुओं को जीता करे ॥ ४ ॥
विषय
'वृषण = गोविद' का रथ
पदार्थ
१. (सः) = वह पुरुष ही (घ) = निश्चय से (तम्) = उस (वृषणम्) = शक्तिशाली व (गोविदम्) = ज्ञान की वाणियों के प्रकाशक अथवा रश्मियों को प्राप्त करनेवाले (रथम्) = शरीररूप रथ पर (अधितिष्ठति) अधिष्ठित होता है, (यः) जो (पात्रम्) = [पा रक्षणे] सबके रक्षक अथवा सबके आधारभूत (हारियोजनम्) = जिसका सम्पर्क [योजनम्] सब कष्टों का हरण करनेवाला है [हारि], (पूर्णम्) = जो पूर्ण है, उस प्रभु को 'इन्द्रः'वह ही परमैश्वर्यवाला है, इस रूप में (चिकेतति) = जानता है । वस्तुतः प्रभु का स्मरण करनेवाला ही इस शरीररूप रथ का ठीक से अधिष्ठातृत्व करता है । वह प्रभुकृपा से कर्मेन्द्रियों से कर्मों में लगा रहकर इसे सशक्त [वृषण] बनाता है और ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्राप्ति में लगा रहकर इसे (गोवित्) = प्रकाश की किरणोंवाला बना पाता है । २. इसकी प्रार्थना यही होती है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो।! आप (ते हरी) = अपने इन इन्द्रियाश्वों को (योजा नु) = निश्चय से हमारे शरीररूप रथ में जोतिए । आपकी कृपा से ही ये घोड़े इस रथ को सशक्त व प्रकाशमय बनाएँगे और मुझे उद्दिष्ट स्थल पर पहुँचानेवाले होंगे ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु को 'पात्र, हारियोजन, पूर्ण' = रूप में स्मरण करते हुए हम इस 'वृषण, गोवित्' शरीर - रथ पर अधिष्ठित हों ।
विषय
महारथी का अधिकार । पक्षान्तर में योगी का और अध्यात्म का वर्णन
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) शत्रुओं के नाशक ! वीर ! राजन् ! ( यः ) जो ( हारियोजनम् ) वेगवान् अश्वों और अश्वारोहियों और विद्वानों को अपने अधीन नियुक्त करने वाले, (पूर्णं) पूर्ण (पात्रं) सबके पालन करने वाले, रक्षक सेनाबल को ( चिकेतति ) अच्छी प्रकार वश करता या जानता है (सः घ) वह ही ( तं ) उस ( वृषणं ) प्रजापर सुखों और शत्रुओं पर वाणों की वर्षा करने वाले ( गोविदम् ) भूमि राज्य को प्राप्त करने वाले विजयी (रथम् अधितिष्ठाति) रथ पर विराजे । वैसा सामर्थ्य होकर ( ते ) तू अपने ( हरी ) अश्वों और दोनों बाजू के सेना-दलों को ( योजनु ) नियुक्त कर, संचालित कर । योगी के पक्ष में—जो ( हारियोजनम् ) सब दुःखों के बारक परमेश्वर को समाधि से प्राप्त कराने वाले ( पूर्णं पात्रं ) पूर्ण पालनकर्त्ता परमेश्वर को ( चिकेतति ) जान लेता है वह ( तं ) उस ( वृषणं ) समस्त सुखों के बरसाने वाले ( रथम् ) रसस्वरूप, सब दुःखों के छुड़ाने वाले, ( गोविदम् ) सूर्यादि लोकों में व्यापक, ज्ञानवाणियों के प्रापक परमेश्वर को ( अधितिष्ठाति ) प्राप्त होता है। उसकी उपासना करता है । हे आत्मन् ! तू अपने वेगवान् प्राण और अपान दोनों को वश कर । अध्यात्म में—( हारियोजनम् ) इन्द्रिय रूप अश्वों से युक्त (पूर्णं) पालक आत्मा को जानता है वह ( तं वृषणं ) उस बलवान्, सुखप्रद (गोविदम्) इन्द्रियों को वश करने वाले ( रथम् ) रथ के समान आत्मा यो देह आदि को ( अधितिष्ठाति ) प्राप्त करता या वश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ४ निचृदास्तारपंक्तिः । २, ३, ५ विराडास्तारपंक्तिः । ६ विराड् जगती ॥ षङृर्चं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सेनापति कैसा हो, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यः भवान् हारियोजनं पूर्णं पात्रं रथं चिकेतति, स त्वं तस्मिन् रथे हरी नु योज। हे इन्द्र ! यस्ते तं वृषणं गोविदं रथम् अधि तिष्ठाति स घ कथं न विजयते ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक=परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (गोविदम्) गां भूमिं विन्दति येन तम्=जिससे भूमि को प्राप्त होनेवाले, (भवान्)=आप, (हारियोजनम्) हरयोऽश्वा युज्यन्ते यस्मिंस्तत्=ले जानेवाले अश्व जिसमें जोड़े जाते हैं, (पूर्णम्) समग्रशस्त्रास्त्रसामग्रीसहितम्= समस्त शस्त्र-अस्त्र और सामग्री सहित, (पात्रम्) पद्यते येन तत्=जिस से कदम बढ़ाते हैं, उस, (रथम्) ज्ञानम्=ज्ञान को, (चिकेतति) जानाति=जानता है, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (तस्मिन्)=उस, (रथे)=रथ में, (हरी) हरणशीलौ वेगाकर्षणाख्यावश्वौ=चुराकर ले जाये जाने के योग्य, वेग और आकर्षण नाम से कहे जानेवाले अश्व, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (योज) अश्वैर्युक्तं कुरु=अश्वों से युक्त करो, अर्थात् जोड़ो । हे (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक= परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (यः)=जो, (ते) तव=तुम्हारा, (तम्)=उनके, (वृषणम्) शत्रूणां शक्तिबन्धकम्= शत्रुओं की शक्ति का बन्धक, (गोविदम्) गां भूमिं विन्दति येन तम्= भूमिं को जाननेवाला, (रथम्)= रथ के, (अधि) उपरि=ऊपर, (तिष्ठाति) तिष्ठतु=बैठे, (सः) विद्वान् वीरः=विद्वान् वीर, (घ) एव=ही, (कथम्)=क्यों, (न)=नहीं, (चिकेतति) जानाति=जानता है ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सेनापति के द्वारा सेना की पूर्ण शिक्षा और प्रसन्न हुए बल से हृष्ट-पुष्ट हाथी, घोड़े रथ, शस्त्र-अस्त्रादि सामग्री से पूर्ण सेना को पूर्ण करके शत्रुओं पर विजयी होना चाहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (गोविदम्) जिससे भूमि को प्राप्त होनेवाले (भवान्) आप (हारियोजनम्) ले जानेवाले अश्व जिस [रथमें] जोड़े जाते हैं और (पूर्णम्) समस्त शस्त्र-अस्त्र और सामग्री सहित, (पात्रम्) जिस से कदम बढ़ाते हैं, उस (रथम्) ज्ञान को (सः) वह (चिकेतति) जानता है। (त्वम्) तुम (तस्मिन्) उस (रथे) रथ में (हरी) चुराकर ले जाये जाने के योग्य, वेग और आकर्षण नाम से कहे जानेवाले अश्वों को (नु) शीघ्र (योज) युक्त करो, अर्थात् जोड़ो । हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (यः) जो (ते) तुम्हारे (तम्) उन (वृषणम्) शत्रुओं की शक्ति को बांधनेवाला है और (गोविदम्) भूमिं को जाननेवाला है, [वह] (रथम्) रथ के (अधि) ऊपर (तिष्ठाति) बैठे, [ऐसा] (सः) विद्वान् वीर (घ) ही (कथम्) क्यों (न+चिकेतति) नहीं जानता है ॥४॥
संस्कृत भाग
सः । घ॒ । तम् । वृष॑णम् । रथ॑म् । अधि॑ । ति॒ष्ठा॒ति॒ । गो॒विद॑म् । यः । पात्र॑म् । हा॒रि॒ऽयो॒ज॒नम् । पू॒र्णम् । इ॒न्द्र॒ । चिके॑तति । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सेनाध्यक्षेण पूर्णशिक्षाबलहर्षितां हस्त्यश्वरथशस्त्रादिसामग्रीपरिपूर्णां सेनां सम्पाद्य शत्रवो विजेयाः ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
सेनापतीने पूर्ण शिक्षणाने व बलाने धष्टपुष्ट हत्ती, घोडे, रथ शस्त्र, अस्त्र इत्यादीनी पूर्ण सेना तयार करून शत्रूंना जिंकावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, only that person who knows the science and technology of that horse-powered chariot which is perfect and fully capable of defence and safety against the enemy, would ride that prize-winning chariot of victory which would lead him to the conquest of territory and prosperity. Indra, yoke your horses (and come to join the yajna of defence and protection).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra is taught further in the 4th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander-in-chief of the army ) quickly yoke your-good horses in the chariot which rains blessings. and prevents the foes and which enables us to win new kingdom. It is a chariot in which two horses in the form of speed and attraction are yoked and which contains everything important with all material of war all arms and weapons and other requisite things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृषभम्) शत्रूणां शक्तिप्रतिबन्धकम् । = The destroyer of the power of the enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Commander-in-chief of the army should organise well-earned army consisting of the elephants, horses, chariots, etc. arms and weapons. Then he should yoke to conquer his enemies.
Subject of the mantra
Then, how should that commander be? This matter has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=God who grants ultimate opulence, (govidam) =the one with whom we step, (bhavān) =you, (hāriyojanam) =the carrying horse, [rathameṃ] =connect to the chariot and, (pūrṇam)= Including all missiles, arms and materials, (pātram) =The one with whom we step, with that, (ratham) =to information, (saḥ) =he, (ciketati) =knows, (tvam) =you, (tasmin) =that, (rathe) =in chariot, (harī)= horses that are capable of being stolen and are known for their speed and attractiveness,(nu) =quickly, (yoja) combine, i.e. connect. He=O! (indra)=God who grants ultimate opulence, (yaḥ) =those, (te) =your, (tam) =those, (vṛṣaṇam)= binds the power of enemies and. (govidam)=one who knows the land, [vaha]=he, (ratham) =of chariot, (adhi) =above, (tiṣṭhāti) =must sit, [aisā]=such, (saḥ)=learned warrior, (gha) =only, (katham) =why, (na+ciketati) =does not know.
English Translation (K.K.V.)
O God who grants ultimate opulence! By whom you know the land, the horses to which you are attached to the chariot carrying you and all the weapons and equipment with which you move, the God has that information. You, quickly equip the horses, we know by the name of speed and attractiveness, which are capable of being stolen and taken away that chariot, that is, connect them. O God who grants ultimate opulence! The one who binds the power of enemies and knows the land, sits on the chariot, why learned warrior does not know such?
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By the commander with full training of troops and pleased strength, should be victorious over the enemies by completing the army with strong elephants, horses, chariots and weapons.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal