ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 10
ऊ॒र्ध्वं नु॑नुद्रेऽव॒तं त ओज॑सा दादृहा॒णं चि॑द्बिभिदु॒र्वि पर्व॑तम्। धम॑न्तो वा॒णं म॒रुतः॑ सु॒दान॑वो॒ मदे॒ सोम॑स्य॒ रण्या॑नि चक्रिरे ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वम् । नु॒नु॒द्रे॒ । अ॒व॒तम् । ते । ओज॑सा । द॒दृ॒हा॒णम् । चि॒त् । बि॒भि॒दुः॒ । वि । पर्व॑तम् । धम॑न्तः । वा॒णम् । म॒रुतः॑ । सु॒ऽदान॑वह् । मदे॑ । सोम॑स्य । रण्या॑नि । च॒क्रि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा दादृहाणं चिद्बिभिदुर्वि पर्वतम्। धमन्तो वाणं मरुतः सुदानवो मदे सोमस्य रण्यानि चक्रिरे ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वम्। नुनुद्रे। अवतम्। ते। ओजसा। दादृहाणम्। चित्। बिभिदुः। वि। पर्वतम्। धमन्तः। वाणम्। मरुतः। सुऽदानवः। मदे। सोमस्य। रण्यानि। चक्रिरे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यथा मरुत ओजसाऽवतं दादृहाणं पर्वतं मेघं बिभिदुरूर्ध्वं नुनुद्रे तथा ये वाणं धमन्तः सुदानवः सोमस्य मदे रण्यानि विचक्रिरे ते राजानश्चिदिव जायन्ते ॥ १० ॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टमार्गं प्रति (नुनुद्रे) नुदन्ति (अवतम्) रक्षणादियुक्तम् (ते) मनुष्याः (ओजसा) बलपराक्रमाभ्याम् (दादृहाणम्) दृंहितुं शीलम् (चित्) इव (बिभिदुः) भिन्दन्तु (वि) विविधार्थे (पर्वतम्) मेघम् (धमन्तः) कम्पयमानाः (वाणम्) वाणादिशस्त्रास्त्रसमूहम् (मरुतः) वायवः (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां ते (मदे) हर्षे (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (रण्यानि) रणेषु साधूनि कर्माणि (चक्रिरे) कुर्वन्ति ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या अस्य जगतो मध्ये जन्म प्राप्य विद्याशिक्षां गृहीत्वा वायुवत् कर्माणि कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन् ॥ १० ॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जैसे (मरुतः) वायु (ओजसा) बल से (अवतम्) रक्षणादि का निमित्त (दादृहाणम्) बढ़ाने के योग्य (पर्वतम्) मेघ को (बिभिदुः) विदीर्ण करते और (ऊर्ध्वम्) ऊँचे को (नुनुद्रे) ले जाते हैं, वैसे जो (वाणम्) बाण से लेके शस्त्रास्त्र समूह को (धमन्तः) कंपाते हुए (सुदानवः) उत्तम पदार्थ के दान करनेहारे (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के मध्य में (मदे) हर्ष में (रण्यानि) संग्रामों में उत्तम साधनों को (विचक्रिरे) करते हैं (ते) वे राजाओं के (चित्) समान होते हैं ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग इस जगत् में जन्म पा, विद्या शिक्षा का ग्रहण और वायु के समान कर्म्म करके सुखों को भोगें ॥ १० ॥
विषय
अविद्यापर्वत - विभेदन
पदार्थ
१. (ते मरुतः) = वे प्राण (अवतम्) = [अव् रक्षणे] अपने से सुरक्षित पुरुष को अथवा नीचे गिरे हुए पुरुष को [अवस्तात् ततम्] (ऊर्ध्वं नुनद्रे) = ऊपर प्रेरित करते हैं । प्राण - साधना से मनुष्य की अशुभवृत्तियाँ नष्ट होती हैं और इस प्रकार इन प्राणों के द्वारा मनुष्य का उत्थान किया जाता है । २. ये प्राण (दादृहाणं चित्) = अत्यन्त दृढ़ भी (पर्वतम्) = अविद्यापर्वत को [पाँच पर्वोंवाली होने से अविद्या पर्वत कही गई है] (वि बिभिदुः) = विशेषरूप से विदीर्ण कर देते हैं । प्राणसाधना के द्वारा अशुद्धियों का नाश होकर ज्ञान की दीप्ति होती है । इस ज्ञान के प्रकाश में अविद्यान्धकार विलीन हो जाता है । यही अविद्यापर्वत का भेदन है । ३. (वाणम्) = शतसंख्यावाली तन्त्रियों से युक्त वीणा के तुल्य शतवर्षपर्यन्त चलनेवाले इस शरीर को (धमन्तः) = तप की अग्नि से संयुक्त करते हुए (मरुतः) = प्राण [प्राणायामः परमं तपः] (सुदानवः) = बुराइयों का अच्छी प्रकार खण्डन करनेवाले होते हैं । प्राणायामरूपी तप की अग्नि में शरीर के सब दोष भस्म हो जाते हैं । ४. दोषों के भस्म होने पर शरीर में सोम की रक्षा होती है और तब ये प्राणसाधक पुरुष (सोमस्य मदे) = इस सोम के मद = हर्ष में (रण्यानि) = अत्यन्त रमणीय कार्यों को (चक्रिरे) = करते हैं । सोमरक्षा से जीवन में उल्लास का अनुभव होता है । इस उल्लास के साथ पवित्रता होती है, परिणामतः सोमरक्षक पुरुष रमणीय कर्मों को ही करता है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से उन्नति होती है, अविद्या का नाश होता है । प्राणायामरूप तप की अग्नि में शरीर के दोष दूर हो जाते हैं और सोमरक्षण से उल्लसित पुरुष पवित्र कर्मों को करता है ।
विषय
हैण्डपम्प
शब्दार्थ
(ते मरुतः) वे सैनिक लोग (ओजसा) अपने पराक्रम से (अवतम्) कुएँ को (ऊर्ध्वम् नुनुद्रे) ऊपर धकेल देते हैं और (दादृहाणम्) दृढ (पर्वतम्) पर्वत को (चित्) भी (वि बिभिदु:) विविध उपायों से तोड़-फोड़ डालते हैं (सुदानव:) शत्रु सेना का संहार करने में कुशल वे सैनिक (वाणं धमन्तः) सैनिक बैण्ड बजाते हुए (सोमस्य मदे) ऐश्वर्य एवं विजय प्राप्ति के हर्ष में (रण्यानि) संग्रामोचित नाना कार्यो को (चक्रिरे) किया करते हैं ।
भावार्थ
सैनिक लोग विजय की कामना से कैसे कार्य कर डालते हैं उनका इस मन्त्र में वर्णन है । सैनिक लोग अपने पराक्रम और शक्ति से कुएँ को ऊपर धकेल देते हैं । वेद के ‘ऊर्ध्वं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा’ से यह ध्वनि निकलती है कि वे हैडपम्प जैसा कोई यन्त्र लगाकर कुएँ को, कुएँ की जलराशि को ऊपर उठा देते हैं । यह हमारी कल्पना नहीं है। अगले ही मन्त्र में वेद ने इसे स्पष्ट किया है - जिह्मं नुनुद्रेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नुत्सं गोतमाय तृष्णजे । अर्थात् वे सैनिक लोग प्यासे (गोतमाय) बुद्धिमान् के लिए, गमनशील, शक्तिशाली अथवा ब्राह्मणों के लिए कुएँ को टेढ़ा करके उसे ऊपर की ओर प्रेरित करते हैं और फव्वारे से जल बरसा देते हैं, अथवा जल को खींच लेते हैं । सैनिक लोगों के पास इस प्रकार के यन्त्र होते हैं कि वे पर्वत को भी तोड़-फोड़ डालते हैं। रामायण में वानर-सेना के पास इस प्रकार के यन्त्रों के होने का उल्लेख मिलता है ।
विषय
वीरों का अवनत राष्ट्र की उन्नति और शत्रु नाश का कर्तव्य । और दृष्टि रहस्य ।
भावार्थ
( मरुतः ) वायुगण ( ओजसा ) अपने बल या सूर्य के तेज से ( अवतं ) नीचे भूमि पर स्थित जल को ( ऊर्ध्वं नुनुद्रे ) ऊपर उठा ले जाते हैं और वे ही ( दादृहाणं ) बढ़ते हुए ( पर्वतम् ) मेघ को ( वि बिभिदुः ) विविध प्रकार से छिन्न भिन्न भी कर देते हैं । वे ( वाणं ) जलों के समूह मेघ को ( धमन्तः ) कंपाते हुए ( सोमस्य मदे ) सूर्य के बल पर वा जल के बल पर ( रण्यानि चक्रिरे ) संग्राम के सदृश बल युक्त या अति रमणीय कार्यों को करते हैं उसी प्रकार ( ते मरुतः ) वे वीर, विजयेच्छु सैनिक गण ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम से ( अवतम् ) नीचे गिरे हुए राष्ट्र को ( ऊर्ध्वं नुनुद्रे ) ऊंचा करें । अथवा—वे अपने पराक्रम में ( अवतम् ) सुरक्षित राज्य और राष्ट्रपति को ( ऊर्ध्वं नुनुद्रे ) ऊंचा करें । और ( दादृहाणं ) बराबर बढ़ते हुए, दृढ़ ( पर्वतम् ) नाना पालन सामर्थ्यों से युक्त, पर्वत के समान दुर्गम, बीच में बाधा डालने वाले, शत्रु को ( ओजसा ) अपने पराक्रम से ( वि बिभिदुः) विविध उपायों से तोड़ फोड़ डालें । वे ( सुदानवः ) उत्तम, दानशील या उत्तम रीति से शत्रु बल को खण्ड २ कर देने में कुशल ( वाणं ) बाण आदि शस्त्रास्त्रों को अभियुक्त करते हुए और ( बाणं धमन्तः ) शब्द करने वाले मारू बाजे को बजाते हुए ( सोमस्य मदे ) ऐश्वर्य प्राप्ति के हर्ष में ( रण्यानि ) संग्रामोचित नाना कर्मों को ( चक्रिरे ) करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे मनुष्य कैसे हों, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यथा मरुत ओजसा अवतं दादृहाणं पर्वतं मेघं बिभिदुः ऊर्ध्वं नुनुद्रे तथा ये वाणं धमन्तः सुदानवः सोमस्य मदे रण्यानि वि चक्रिरे ते राजानः चित् इव जायन्ते ॥१०॥
पदार्थ
पदार्थः- (यथा)=जैसे, (मरुतः) वायवः=वायु, (ओजसा) बलपराक्रमाभ्याम्= बल और पराक्रम से, (अवतम्) रक्षणादियुक्तम्=रक्षा आदि किये हुओं की, (दादृहाणम्) दृंहितुं शीलम्=वृद्धि करने के स्वभाव के, (पर्वतम्) मेघम्=बादल को, (बिभिदुः) भिन्दन्तु=छिन्न-भिन्न करते हैं, (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टमार्गं प्रति= उत्कृष्ट मार्ग की ओर जाने के लिये, (नुनुद्रे) नुदन्ति=प्रेरित करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (ये)=जो, (वाणम्) वाणादिशस्त्रास्त्रसमूहम्=वाण आदि शस्त्र और अस्त्र के समूह, [जिनसे] (धमन्तः) कम्पयमानाः=कांपते हैं, (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां ते=उत्तम पदार्थों के दान दोनेवाले, [इस] (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये=उत्पन्न हुए संसार में, (मदे) हर्षे= प्रसन्नतापूर्वक, (रण्यानि) रणेषु साधूनि कर्माणि=युद्धों में उत्तम कर्मों को, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से, (चक्रिरे) कुर्वन्ति=करते हैं, (ते) मनुष्याः=वे मनुष्य, (राजानः)= राजा के, (चित्) इव=समान, (जायन्ते)=हो जाते हैं ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग इस संसार में जन्म पा करके, विद्या और शिक्षा का ग्रहण करके और वायु के समान कर्मों को करके सुखों को भोगें ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जैसे (मरुतः) वायु (ओजसा) बल और पराक्रम से (अवतम्) रक्षा आदि किये हुओं की (दादृहाणम्) वृद्धि करने के स्वभाव के, (पर्वतम्) बादल को (बिभिदुः) छिन्न-भिन्न करते हैं और (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्ट मार्ग की ओर जाने के लिये (नुनुद्रे) प्रेरित करते हैं, (तथा) वैसे ही (ये) जो (वाणम्) वाण आदि शस्त्र और अस्त्र के समूह, [जिनसे डर से] (धमन्तः) कांपते हैं, [ऐसे] (सुदानवः) उत्तम पदार्थों के दान दोनेवाले, [इस] (सोमस्य) उत्पन्न हुए संसार में, (रण्यानि) युद्धों में उत्तम कर्मों को (मदे) प्रसन्नतापूर्वक (वि) विविध प्रकार से (चक्रिरे) करते हैं, (ते) वे मनुष्य (राजानः) राजा के (चित्) समान (जायन्ते) हो जाते हैं ॥१०॥
संस्कृत भाग
ऊ॒र्ध्वम् । नु॒नु॒द्रे॒ । अ॒व॒तम् । ते । ओज॑सा । द॒दृ॒हा॒णम् । चि॒त् । बि॒भि॒दुः॒ । वि । पर्व॑तम् । धम॑न्तः । वा॒णम् । म॒रुतः॑ । सु॒ऽदान॑वह् । मदे॑ । सोम॑स्य । रण्या॑नि । च॒क्रि॒रे॒ ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या अस्य जगतो मध्ये जन्म प्राप्य विद्याशिक्षां गृहीत्वा वायुवत् कर्माणि कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी या जगात जन्माला येऊन विद्या, शिक्षण घ्यावे व वायूप्रमाणे कर्म करावे व सुख भोगावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
With their lustrous power and valour, up and high they impel the cloud holding the reservoir of water, drive it on and break it to release the flow of energy for earth’s fertility. Blowing the conch, they call upon the nation and, playing the veena and burnishing their weapons, the tempestuous Maruts, commanders of Indra, generous heroes of humanity, perform delightful acts of joy and martial celebration in the midst of life’s ecstasy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (Maruts) is taught further in the Ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the winds by their power olive asunder the protective growing cloud and take it above, in the same manner, they become like rulers who using arrows and other weapons and being bounteous perform glorious deeds in the world, in the battle field and elsewhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये = In the world. (पर्वतम् मेघम्) = Cloud. (वारणम् ) वारणादिशस्त्रास्त्रसमूहम् = Arrows and other weapons. (अवतम्) रक्षादियुक्तम् = Protective.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should do noble and benevolent deeds in the world having acquired good knowledge and education. They should thus enjoy happiness.
Subject of the mantra
Then, how should those human beings be?This topic has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā) =Like, (marutaḥ) =air, (ojasā)= with power and valour, (avatam)=of those who are protected, (dādṛhāṇam) =of the nature of increasing, (parvatam) =to cloud, (bibhiduḥ) =disintegrate and, (ūrdhvam)= to go towards the best path, (nunudre) =inspire, (tathā) =similarly, (ye) =those, (vāṇam) =arrows etc.d groups of missiles and arms, [jinase ḍara se]=from whom they fear, (dhamantaḥ) =tremble, [aise]=such, (sudānavaḥ)=donors of good things, [isa]=this, (somasya) =created world, (raṇyāni) =good deeds in wars, (made)= happily, (vi)= in various ways, (cakrire) =perform, (te) =they humans, (rājānaḥ) =of king, (cit) =like, (jāyante)= become.
English Translation (K.K.V.)
Just as the air, which is of the nature of increasing the power and valour of those who are protected, disperses the clouds and inspires them to move towards the excellent path, similarly, the weapons like arrows etc. and groups of arms and missiles tremble with fear from whom. Those who donate such good things, happily perform good deeds in various ways in this created world and in wars, they human become like a king.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Human beings should enjoy happiness by taking birth in this world, acquiring knowledge and education and performing deeds like air.
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