ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 126/ मन्त्र 2
ऋषिः - कुल्मलबर्हिषः शैलूषिः, अंहोभुग्वा वामदेव्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
तद्धि व॒यं वृ॑णी॒महे॒ वरु॑ण॒ मित्रार्य॑मन् । येना॒ निरंह॑सो यू॒यं पा॒थ ने॒था च॒ मर्त्य॒मति॒ द्विष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । हि । व॒यम् । वृ॒णी॒महे॑ । वरु॑ण । मित्र॑ । अर्य॑मन् । येन॑ । निः । अंह॑सः । यू॒यम् । पा॒थ । ने॒थ । च॒ । मर्त्य॑म् । अति॑ । द्विषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्धि वयं वृणीमहे वरुण मित्रार्यमन् । येना निरंहसो यूयं पाथ नेथा च मर्त्यमति द्विष: ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । हि । वयम् । वृणीमहे । वरुण । मित्र । अर्यमन् । येन । निः । अंहसः । यूयम् । पाथ । नेथ । च । मर्त्यम् । अति । द्विषः ॥ १०.१२६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 126; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वरुण मित्र-अर्यमन्) पूर्वोक्त हे वरुण ! मित्र ! अर्यमन् ! (वयम्) हम (तत्-हि) उस ही रक्षण को (वृणीमहे) चाहते हैं-वरते हैं (येन) जिस रक्षण से (यूयम्) तुम (मर्त्यम्) मनुष्य को (अंहसः) पाप कर्म से (नि पाथ) निश्चित रक्षा करते हो-करो (द्विषः-अति) द्वेष करनेवाले विरोधियों को अतिक्रमण करके हटाकर (च) तथा (नेथ) अभीष्ट तक ले जाओ ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिये कि अध्यापक आदि चेतन देवों और सूर्य आदि जड़ देवों के अनुकूल सेवन से जीवनयात्रा ऐसे करनी चाहिए, जिससे पाप से बच सकें और अपना अभीष्ट साध सकें ॥२॥
विषय
काम-क्रोध-लोभ से दूर
पदार्थ
[१] हे (वरुण-मित्र -अर्यमन्) = द्वेष का निवारण करनेवाले, स्नेहवाले, काम आदि का नियमन करनेवाले देवो ! (वयम्) = हम (हि) = निश्चय से (तद् वृणीमहे) = वही चाहते हैं (येन) = जिससे (यूयम्) = आप (मर्त्यम्) = मुझ मनुष्य को (अंहसः) = पाप व कुटिलता से (निःपाथ) = पार करके रक्षित करते हो, (च) = और (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से (अतिनेथ) = पार ले जाते हो । [२] 'मित्र' हमें सबके साथ स्नेह कराता हुआ 'काम' से ऊपर उठाता है। 'वरुण' हमें द्वेष से दूर करता हुआ क्रोध से रहित करता है । (अर्यमा) = हमें दानवृत्तिवाला बनाता हुआ लोभ से दूर करता है । इस प्रकार हम 'काम-क्रोध-लोभ' से ऊपर उठ जाते हैं। |
भावार्थ
भावार्थ - 'मित्र, वरुण व अर्यमा' हमें 'काम-क्रोध-लोभ' से दूर करें ।
विषय
विश्वेदेव। पाप से रक्षा। सत्संग द्वारा सज्जनों की कृपा से पाप से पार होना, सब बुराइयों से छूटना।
भावार्थ
हे (वरुण मित्र अर्यमन्) वरुण ! हे मित्र ! हे अर्यमन् ! (येन) जिस उपाय से आप लोग (द्विषः अंहसः) पाप रूप शत्रु से (मर्त्यं) मनुष्य की (अति निः पाथ) पार करके रक्षा करते हो और (नेथ) सन्मार्ग में लेजाते हो, (वयं तत् हि वृणीमहे) हम तो आप से उसी उपाय, या बल की याचना करते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुल्मलबर्हिषः शैलुषिरंहोमुग्वा वामदेव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, ५, ६ निचृद् बृहती। २–४ विराड् वृहती। ७ बृहती। ८ आर्चीस्वराट् त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वरुण मित्र-अर्यमन्) हे पूर्वोक्त वरुण ! मित्र ! अर्यमन् ! (वयं तत्-हि वृणीमहे) वयं तदेव रक्षणं वृणुयामः (येन) येन रक्षणेन (यूयम्-मर्त्यम्-अंहसः-निः पाथ) यूयं जनं पापकर्मणः-निश्चितं रक्षथ (द्विषः-अति) द्वेष्टॄन् विरोधिनोऽतिक्रम्य परास्य (च) तथा (नेथ) नयथ ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Mitra, Varuna and Aryama, divinities of love, justice and rectitude within and without in society, nature and beyond, that protection and guidance of yours we seek of you, yourself all beyond sin and evil. Save the mortals from sins and lead them to success and fulfilment across and beyond hate, jealousy, enmity and all negativity.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने अध्यापक इत्यादी चेतन देव व सूर्य इत्यादी जड देवांच्या अनुकूलतेने जीवन घालवावे, की ज्यामुळे पापापासून सुटका होऊन आपले अभीष्ट साध्य होईल. ॥२॥
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