ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
प॒रे॒यि॒वांसं॑ प्र॒वतो॑ म॒हीरनु॑ ब॒हुभ्य॒: पन्था॑मनुपस्पशा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तं सं॒गम॑नं॒ जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ दुवस्य ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रे॒यि॒ऽवांस॑म् । प्र॒ऽवतः॑ । म॒हीः । अनु॑ । ब॒हुऽभ्यः॑ । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तम् । स॒म्ऽगम॑नम् । जना॑नाम् । य॒मम् । राजा॑नम् । ह॒विषा॑ । दु॒व॒स्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्य: पन्थामनुपस्पशानम् । वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥
स्वर रहित पद पाठपरेयिऽवांसम् । प्रऽवतः । महीः । अनु । बहुऽभ्यः । पन्थाम् । अनुऽपस्पशानम् । वैवस्वतम् । सम्ऽगमनम् । जनानाम् । यमम् । राजानम् । हविषा । दुवस्य ॥ १०.१४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त के प्रथम और षष्ठ मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं, निरुक्तकार ने यम का अर्थ या उसका सम्बन्ध मृतपुरुषों के अधिष्ठाता का नहीं दर्शाया, अपितु उससे भिन्न किसी विशेष विज्ञान का दर्शक अर्थ किया है, जो उसकी अत्युत्तमग्राह्य नैरुक्तप्रक्रिया है, जिसका अवलम्बन हमारे अर्थों में है। इस सूक्त में वैवस्वत यम की चर्चा है, जहाँ-जहाँ यम का वैवस्वत विशेषण दिया गया है, वहाँ-वहाँ विवस्वान् (सूर्य) से उत्पन्न हुआ काल यम का अर्थ है। अत एव यहाँ भी वैवस्वत विशेषण होने से यम का अर्थ काल है। ज्योतिर्विद्या में दो प्रकार का काल माना गया है, एक लोकों का अन्त करनेवाला काल, जिसको विश्वकाल (व्यापी काल) कहते हैं, दूसरा गणनात्मक काल, जिसको संख्येय काल (कालविभाग) कहते हैं−“लोकानामन्तकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः।” [सूर्यसिद्धान्त १।१०] इस प्रकार इस सूक्त में उभयविध काल का विज्ञान है। काल का संसार के बड़े-बड़े और छोटे-छोटे पदार्थों के साथ सम्बन्ध, जीवनकाल की वृद्धि का प्रकार, काल के ऋतु आदि विभाग और उनका अन्य वस्तुओं से सहचार तथा उपयोग, प्राणियों की उत्पत्ति, देहपात तथा पुनर्जन्म में काल का सम्बन्ध, भूत-वर्त्तमान-भविष्यत् में काल-क्रान्ति और उसका प्रभाव आदि-आदि आवश्यक विज्ञान इस सूक्त में है।
पदार्थ
(महीः-अनु प्रवतः परेयिवांसम्) पृथिवीलोकों पर स्थित पुराने, उन्नत और थोड़े समय के या ताजे उत्पन्न एवं सभी पदर्थों को सर्वतः अधिकार करके प्राप्त तथा (बहुभ्यः पन्थाम् अनुपस्पशानम्) बहुत प्रकारों से जीवनमार्ग को पाशतुल्य स्वाधीन करते हुए और (जनानां सङ्गमनं वैवस्वतं यमं राजानं हविषा दुवस्य) जायमान अर्थात् उत्पन्नमात्र वस्तुओं के प्राप्तिस्थानरूपसूर्य के पुत्र काल-समय प्रातः सायं-अमावस्या-पूर्णिमा-ऋतु-संवत्सर विभाग-युक्त राजा के समान वर्तमान विश्वकाल ‘समय’ को आहुतिक्रिया से हे जीव ! तू दीर्घायुलाभ के लिए स्वानुकूल बना। यह आन्तरिक विचार है ॥१॥
भावार्थ
विश्वकाल संसार के सब पदार्थों को व्याप्त और प्राप्त है। वही सबकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश का निमित्त है। उस सूर्यपुत्र को आयुवर्धक पदार्थों के होम द्वारा स्वानुकूल बनाना चाहिए ॥१॥
विषय
राजा यम का उपासन
पदार्थ
[१] (प्रवतः) = [प्रकृष्ट कर्मवतः ] उत्कृष्ट कर्मों वाले, (महीः) = [मह् पूजायाम्+इ] पूजा व उपासना करने वालों को (अनु) = अनुकूलता से (परेयिवांसम्) = सुदूर स्थानों से भी प्राप्त होनेवाले प्रभु को (हविषा) = हवि के द्वारा पूजित करनेवाले होवो । प्रभु अज्ञानियों के लिये दूर से दूर होते हैं । वे ही प्रभु ' पश्यत्विस्व हैव निहितं गुहायाम्' ज्ञानियों के लिये यहाँ शरीर में ही हृदय-गुहा के भीतर निहित होते हैं। अज्ञानियों के लिये दूर हैं, ज्ञानियों के लिये वे यहीं हृदय-गुहा में निहित, समीपतम हो जाते हैं। इस प्रकार हृदयगुहा में प्रभुदर्शन के लिये आवश्यक है कि हम उत्कृष्ट कर्मों में लगे रहें [प्रवत्] तथा प्रातः सायं उस 'एकतत्व' = अद्वितीय सत् प्रभु का उपासन करनेवाले हों [महि] [२] वे प्रभु ही इन (बहुभ्यः) = अनेकों उपासकों के लिये (पन्थाम्) = जीवनमार्ग को (अनुपस्पशानम्) = अनुकूलता से दिखलानेवाले होते हैं। 'सोम्यानां भृमिरसि ' = वे प्रभु इन शान्त सोम्य स्वभाव वाले उपासकों को अज्ञानवश विरुद्ध दिशा में जा रहे हों तो, मुख मोड़कर ठीक दिशा में चलानेवाले होते हैं। [३] वे प्रभु (वैवस्वतम्) = ज्ञान की किरणों वाले हैं। अपने उपासकों के हृदयों को इन ज्ञान किरणों से उज्ज्वल करनेवाले हैं। इस ज्ञान के प्रकाश में ही ये उपासक पथभ्रष्ट नहीं होते । [४] (जनानां संगमन) = ये प्रभु लोगों के एकत्रित होने के स्थान है। इस प्रभु में अधिष्ठित होने पर सब मनुष्य परस्पर एकत्व का अनुभव करते हैं। 'एक ही प्रभु के हम सब पुत्र हैं' यह भावना उन्हें परस्पर बाँधनेवाली होती है । [५] वे प्रभु (यमम्) = हृदय में स्थित होकर सब का नियमन करनेवाले हैं तथा (राजानम्) = सूर्य, चन्द्र व तारे आदि सभी लोक-लोकान्तरों की गति को व्यवस्थित [regulated], करनेवाले हैं। [६] इस प्रभु का उपासन हवि के द्वारा होता है। दानपूर्वक अदन ही उस प्रभु की सच्ची उपासना है । यज्ञशेष का सेवन करता हुआ पुरुष ' त्यक्तेन भुञ्जीथा:' इस प्रभु निर्देश का पालन करता है और प्रभु का प्रिय होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उत्कृष्ट कर्मों वाले उपासकों को प्रभु प्राप्त होते हैं। इन विनीत उपासकों को ही प्रभु मार्गदर्शन करते हैं। वे प्रभु ज्ञान की किरणों वाले हैं। हमें परस्पर एकत्व का अनुभव करानेवाले हैं। नियामक व शासक प्रभु का पूजन यही है कि हम यज्ञशेष का सेवन करें।
विषय
यम। नियन्ता राजा का सत्कार योग्य पद। सत्कार योग्य यम, राजा, आचार्य, गुरु, विवाह्य आदि।
भावार्थ
(प्रवतः महीः) उत्तम २ कर्म करने वालों को (महीः परेयिवांसम्) उत्तम भूमियों को प्राप्त कराने वाले, वा स्वयं (प्रवतः महीः) दूर २ तक के उत्तम देशों और भूमियों को दूर तक प्राप्त करने वाले, और (अनु) अनन्तर (बहुभ्यः) बहुतों के हितार्थ (पन्थाम्) मार्ग को (अनुपस्पशानम्) साक्षी वा पहरेदार के समान सबके मार्ग को देखने वाले और (वैवस्वतं) विविध बसी प्रजाओं के स्वामी, (जनानां संगमनम्) मनुष्यों के एक स्थान पर मिल जाने का आश्रय, (यमं राजानं) नियन्ता राजा को (हविषा दुवस्य) उत्तम अन्न, वचन आदि से सत्कार कर। ऐसा सत्कार राजा, आचार्य, गुरु, विवाह्य सभी को होना आवश्यक है। ये सभी ‘यम’ नाम से कहे जाते हैं। परमेश्वर, गुरु, और राजा तीनों क्रम से विश्व, शिष्य और प्रजाओं के नियन्ता होने से ‘यम’ हैं, वर उपयम, अर्थात् विवाह द्वारा पत्नी को बांधने से ‘यम’ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः॥ देवताः–१–५, १३–१६ यमः। ६ लिंगोक्ताः। ७-९ लिंगोक्ताः पितरो वा। १०-१२ श्वानौ॥ छन्द:- १, १२ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ३, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। १३, १४ निचृदनुष्टुप्। १६ अनुष्टुप्। १५ विराड् बृहती॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(महीः-अनु-प्रवतः परेयिवांसम्) महीरनु पृथिवीलोकाननु “महीति पृथिवीनाम” [निघ०१।१] प्रवतः प्रगतान् पुराणानुद्वत उद्गतानुन्नतान् निवतो निगतानल्पसमयकान् पदार्थान् पर्यागतवन्तं परिक्रम्य सर्वतोऽधिकृत्य प्राप्तवन्तम् “महीरनु प्रवत उद्वतो निवतः पर्यागतवन्तं” [निरु०१०।२०] (बहुभ्यः पन्थाम्-अनुपस्पशानम्) बहुभ्यः प्रकारेभ्यः ‘हेतौ पञ्चमी’ विशेषेण पाशयमानं पाशमिव विस्तारयन्तम् “बहुभ्यः पन्थामनुपस्पाशयमानम्” [निरु०१०।२०] (जनानां सङ्गमनं वैवस्वतं यमं राजानं हविषा दुवस्य) जनानां जायमानानामुत्यद्यमानानां पदार्थानाम् “जायते इति जनः” सङ्गमनमन्ते प्राप्तिस्थानं वैवस्वतं विवस्वतः सूर्यस्य पुत्रं यमं यन्तारं कालं समयं प्रातःसायन्दर्शपौर्णमासर्तुसंवत्सरविभागात्मकं राजानं राजानमिव वर्तमानं हविषा हविर्दानेन दुवस्य राध्नुहि संसाधय स्वानुकूलं कुरु दीर्घायुष्यलाभायेति यावत् ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Know Yama, cosmic Time, refulgent, all ruling all comprending Time, pervading all that moves forward, stars and planets all, watching, showing the paths of movement for all and outlasting them all. Temporal correspondent dimension of Vivasvan, Savita, ultimate light and supreme spirit, immanent and transcendent, eternal and infinite, ordainer and controller of the world, ultimate end and destination of all that is born, it is the creator, mover and consumer all in one. Worship it with service and homage of yajna (if you wish to survive as spirit through the flux).$Note: In Surya Siddhanta time is Cosmic Time and, secondly, it is temporal which is the temporal correspondent of things in flux. One is called Lokanam- anta-krt-Kala which comprehends all things in existence, and the other is time in respect of calculation, ‘Kalanatmaka’. Yama in this hymn is not the god of death, it is the child of the sun, Vivasvan. Therefore Yama should be interpreted as time, in both aspects, i.e., temporal aspect and beyond the temporal in its eternal aspect which is the space-time continuum of eternity.
मराठी (1)
भावार्थ
विश्वकाल जगातील सर्व पदार्थांमध्ये व्याप्त व प्राप्त आहे. तोच सर्वांची उत्पत्ती, स्थिती व नाशाचे निमित्त आहे. त्या सूर्यपुत्राला आयुवर्धक पदार्थ होमात टाकून स्वानुकूल बनविले पाहिजे. ॥१॥
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