ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 144/ मन्त्र 5
ऋषिः - सुपर्णस्तार्क्ष्यपुत्र ऊर्ध्वकृशनो वा यामायनः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - सतोबृहती
स्वरः - मध्यमः
यं ते॑ श्ये॒नश्चारु॑मवृ॒कं प॒दाभ॑रदरु॒णं मा॒नमन्ध॑सः । ए॒ना वयो॒ वि ता॒र्यायु॑र्जी॒वस॑ ए॒ना जा॑गार ब॒न्धुता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । ते॒ । श्ये॒नः । चारु॑म् । अ॒वृ॒कम् । प॒दा । आ । अभ॑रत् । अ॒रु॒णम् । मा॒नम् । अन्ध॑सः । ए॒ना । वयः॑ । वि । ता॒रि॒ । आयुः॑ । जी॒वसे॑ । ए॒ना । जा॒गा॒र॒ । ब॒न्धुता॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं ते श्येनश्चारुमवृकं पदाभरदरुणं मानमन्धसः । एना वयो वि तार्यायुर्जीवस एना जागार बन्धुता ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । ते । श्येनः । चारुम् । अवृकम् । पदा । आ । अभरत् । अरुणम् । मानम् । अन्धसः । एना । वयः । वि । तारि । आयुः । जीवसे । एना । जागार । बन्धुता ॥ १०.१४४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 144; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अन्धसः) अन्न के (मानम्) निर्माण योग्य अंश (अरुणम्) तेजोरूप (चारुम्) सुन्दर या देह में चरण-धारण करने योग्य (अवृकम्) अच्छेद्य अखण्डनीय जिस वीर्य पदार्थ को (श्येनः) आत्मा (पदा) संयमरूप प्राप्ति के साधन से (आ अभरत्) भलिभाँति धारण करता है (एना) उसके द्वारा (जीवसे) जीवन के लिए (वयः-आयुः) तेज और आयु को (वि तारि) बढ़ाता है, प्राप्त कराता है (एना) इसके द्वारा (बन्धुता जागार) परमात्मा के साथ बन्धुता जागती है ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य जो अन्न खाता है, उससे शरीर का निर्माण करने योग्य तेज, सुन्दर शरीर धारण करने योग्य न नष्ट करने योग्य वीर्य पदार्थ को जीवात्मा संयम से ब्रह्मचर्यरूप आचरण से धारण करता है, जो आयु को बढ़ाता है, जीवन में तेज देता है, परमात्मा के साथ मित्रता को जागृत करता है ॥५॥
विषय
दीर्घ उत्कृष्ट जीवन व बन्धुत्व की भावना
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते) = आपके बनाये हुए (यम्) = जिस सोम को (श्येनः) = गतिशील पुरुष (पदा) = गतिशीलता के द्वारा [पद गतौ] (अभरत्) = अपने शरीर में धारण करता है। उस सोम को जो कि (चारुम्) = सुन्दर है, जीवन की सब गतियों में सौन्दर्य को उत्पन्न करता है । (अवृकम्) = लोभादि की वृत्ति से रहित है, अर्थात् जो रक्षित होने पर लोभवृत्ति को नष्ट करता है, (अरुणम्) = आरोचमान है तथा (अन्धसः मानम्) = अन्न का उचित निर्माण करनेवाला है । अर्थात् सोम के रक्षण से जाठराग्नि ठीक रहती है और अन्न का ठीक परिपाक होकर सब वस्तुएँ ठीक बनी रहती हैं। यही अन्न का ठीक निर्माण है। [२] (एना) = इस प्रकार इस सोम के द्वारा [क] (वयः वितारि) = आयुष्य दीर्घ किया जाता है, [ख] (आयुः जीवसे) = ये आयुष्य उत्कृष्ट जीवन के लिये होता है, [ग] (एना) = इस उत्कृष्ट जीवन से (बन्धुता) = प्रभु के साथ बन्धुत्व का भाव (जागार) = जाग उठता है। यह सोमरक्षक 'सोम' - परमात्मा को ही अपना बन्धु जानता है ।
भावार्थ
भावार्थ - रक्षित सोम जीवन को सुन्दर व लोभ से रहित बनाता है। जीवन दीर्घ होता है, सुन्दर होता है और हम प्रभु के बन्धुत्व को अनुभव करते हैं।
विषय
ब्रह्मचर्य पूर्वक धारित, रक्षित वीर्य का महत्व।
भावार्थ
(श्येनः) ज्ञानी, सदाचारी, उत्तम गति से जाने वाला पुरुष (चारुम्) सुन्दर उत्तम आचरण करने योग्य, (अवृकम्) अदुःखदायी सुखप्रद को (पदा) ज्ञानपूर्व आचरण द्वारा (अन्धसः) अन्न के (अरुणं मानम्) तेजोयुक्त देह के निर्माण करने वाले उत्पादक वीर्य रूप (यं) जिस अंश को (आ अभरत्) धारण करता है, (एना) इससे ही (जीवसे) दीर्घ जीवन के लिये (वयः) बल और (आयुः वि तारि) आयु प्राप्त होता है, और (एना) इस वीर्य द्वारा ही (बन्धुता जागार) बन्धुता, नाना सम्बन्धी जन जागृत होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुपर्णस्तार्क्ष्यपुत्र ऊर्ध्वकृशनो वा यामायनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ३ निचृद्गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री। २ आर्ची स्वराड् बृहती। ५ सतोबृहती। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अन्धसः-मानम्-अरुणम्-चारुम्-अवृकम्) अन्नस्य “अन्धः-अन्ननाम” [निघ० २।७] निर्माणयोग्यमंशं तेजोरूपं सुन्दरमच्छेद्यं यं वीर्यपदार्थम्, (श्येनः पदा-आ अभरत्) शंसनीयगतिक आत्मा संयमरूपेण समन्ताद् धारयति (एना) एनेन-एतेन (वयः-जीवसे-आयुः-वि तारि) जीवनाय तेजः “वयः-तेजः” [ऋ० ५।१९।१ दयानन्दः] आयुश्च विशिष्टं प्राप्नोति (एना बन्धुता-जागार) एतेन परमात्मना सह बन्धुता जागर्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The essence of life’s vitality, soma, lovely and pleasing, unassailable and sunny bright, which nature’s energy brings by its own spirit and power, is the vitality by which health and fertility for life grows higher and the kinship and continuity of humanity keeps living and awake.
मराठी (1)
भावार्थ
मनुष्य जे अन्न खातो त्याने देहात सुंदर तेजरूपी वीर्य निर्माण होते. ते जीवात्मा संयमरूपी आचरणाने धारण करतो. जे आयुष्य वाढविते व जीवनात तेज निर्माण करते. त्यामुळे परमेश्वराबरोबर मैत्री भाव जागृत होतो. ॥५॥
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