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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 145/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इन्द्राणी देवता - उपनिषत्सपत्नीबाधनम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधं॒ बल॑वत्तमाम् । यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । ख॒ना॒मि॒ । ओष॑धिम् । वी॒रुध॑म् । बल॑वत्ऽतमाम् । यया॑ । स॒ऽपत्नी॑म् । बाध॑ते । यया॑ । स॒म्ऽवि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां खनाम्योषधिं वीरुधं बलवत्तमाम् । यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । खनामि । ओषधिम् । वीरुधम् । बलवत्ऽतमाम् । यया । सऽपत्नीम् । बाधते । यया । सम्ऽविन्दते । पतिम् ॥ १०.१४५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 145; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में कामवासना की नाशक अध्यात्मविद्या है, परमात्मा के साथ मेल करानेवाली भी है, इसकी सहायक सोम ओषधि भी, अध्यात्मप्रेमी को उसका भी सेवन करना है, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (इमाम्-ओषधिम्) इस दोष पीनेवाली (बलवत्तमां वीरुधम्) बलिष्ठ विशेषरूप से रोहणसमर्थ विद्या को (खनामि) निष्पादित करता हूँ (यया) जिसके द्वारा (सपत्नीं बाधते) विरोधिनी अनिष्ट कामवासना को बाधित करती है, जो उपनिषद्-अध्यात्मविद्या की सपत्नी है (यया पतिं संविन्दते) जिस उपनिषद्-अध्यात्मविद्या द्वारा विश्वपति परमात्मा को मनुष्य प्राप्त होता है ॥१॥

    भावार्थ

    कामवासना को मिटानेवाली उपनिषद् अध्यात्मविद्या को निष्पादित करना चाहिए तथा जो कामवासना को मिटाकर विश्वपति परमात्मा को प्राप्त कराती है ॥१॥

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    विषय

    ओषधि- खनन वीरुधं

    पदार्थ

    [१] 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष है। इसकी पत्नी व शक्ति 'इन्द्राणी ' है । यही वस्तुतः 'आत्मविद्या व ब्रह्मविद्या' है इसकी विरोधिनी व सपत्नी ' भोगवृत्ति' है । इस सूक्त में इस भोगवृत्ति के बाधन का उपदेश है । भोगवृत्ति से मनुष्य प्रभु से दूर और दूर होता जाता है। आत्मविद्या उसे फिर परमात्मा के समीप ले आती है। सो इन्द्राणी कहती है कि (इमाम्) = इस (ओषधिम्) = दोषों का दहन करनेवाले आचार्य से प्राप्त होनेवाली आत्मविद्या को (खनामि) = खोदती हूँ। जैसे वसुन्धरा के खनन से वसुओं को प्राप्त किया जाता है इसी प्रकार आचार्य से मैं आत्मविद्या को प्राप्त करती हूँ। यह आत्मविद्या (वीरुधम्) = मेरा विशेष प्रकार से रोहण व प्रादुर्भाव [विकास] करनेवाली है, (बलवत्तमाम्) = मुझे अत्यन्त सबल बनानेवाली है। [२] यह आत्मविद्या वह है (यया) = जिससे (सपत्नीं बाधते) = आत्मविद्या की सपत्नी रूप भोगवृत्ति को पीड़ित करता है । भोगवृत्ति से दूर होकर (यया) = जिसके द्वारा (पतिम्) = उस सर्वरक्षक प्रभु को (संविन्दते) = पाता है । आत्मविद्या का परिणाम यही है कि मनुष्य भोगवृत्ति से दूर होकर योगवृत्ति को अपनाता है और प्रभु के समीप और समीप होता चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - आचार्य से हम उस आत्मविद्या को प्राप्त करते हैं जिससे कि भोगवृत्ति को विनष्ट करके हम योगवृत्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं ।

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    विषय

    उपनिषत् सपत्नीबाधन। सपत्नीबाधक, पतिप्रापक ओषधि, पापदाहक, प्रभुप्रापक ब्रह्मविद्या।

    भावार्थ

    मैं (इमां) इस (वीरुधं) विपरीत मार्ग में जाने से रोकने वाली (ओषधिम्) पाप-संकल्पों को दग्ध करने का सामर्थ्य धारण करने वाली, (बलवत्-तमाम्) अधिक बलवती, उपनिषत् ब्रह्म-विद्या को (खनामि) खोदता हूं। (यया) जिससे (सपत्नीं बाधते) विद्या की सौत के तुल्य अविद्या को नाश करता है और (यया) जिससे (पतिम्) उस पालक प्रभु को (संविंदते) सौभाग्यवती स्त्री के तुल्य उत्तम पालक पति को प्राप्त करता है। यहां ‘उपनिषत्-सपत्नी’ बाधन, देवता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि इन्द्राणी ॥ देवता—उपनिषत्सपत्नी बाधनम्। छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ४ अनुष्टुप्। ३ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते कामवासनाया नाशयित्री खलूपनिषदध्यात्मविद्याऽस्ति परमात्मना सत्सङ्गतिं कारयित्री च तथा सोम ओषधिरपि तत्सहायिका, अध्यात्मप्रेमिभिः सेवनीयः सोमः।

    पदार्थः

    (इमाम्-ओषधिम्) एतां दोषं पिबन्तीम् “ओषधयः-दोषं धयन्तीति वा” [निरु० ९।२७] (बलवत्तमां वीरुधम्) बलिष्ठां विशेषेण रोहणसमर्थाम् (खनामि) निष्पादयामि “खनामि निष्पादयामि” [यजुः-११।२ दयानन्दः] (यया सपत्नीं बाधते) यया-यस्या-अवलम्बनेन सपत्नीं विरोधिनीमनिष्टां कामवासनां बाधते या हि खलूपनिषदोऽध्यात्मविद्यायाः सपत्नी (यया पतिं संविन्दते) यया खलूपनिषदाऽध्यात्मविद्यया विश्वपतिं परमात्मानं प्राप्नोति जनः ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The subject matter of this hymn at the surface level is getting rid of a rival wife, and for that purpose the speaker takes recourse to a herb also. Thus the hymn reads like a spell cure and possibly with a magical herb. But this approach would not do justice to the deeper meaning of the hymn which is integration or re integration of personality with a single, undivided, focussed interest in the pursuit of a definite goal of positive value.$Split personality is a problem in modern times. So is schizophrenia, a devastating disease. The cure can be both herbal and psychological. The word ‘Upanishat’ helps us to read the hymn in this Vedic direction of practical yoga in which sanative herbs, mental concentration and spiritual faith all play an important role (refer Yoga Sutras of Patanjali, 4, 1.).$I dig out this luxuriant and most powerful herb by which one can annul a rival fascination and by which the pursuant can recover a single, all absorbing love for successful attainment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कामवासनेला मिटविणाऱ्या उपनिषद अध्यात्मविद्येला निष्पादित केले पाहिजे. जी कामवासनेला मिटवून विश्वपती परमेश्वराला प्राप्त करविते. ॥१॥

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