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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 165/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कपोतो नैर्ऋतः देवता - कपोतापहतौप्रायश्चित्तं वैश्वदेवम् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदुलू॑को॒ वद॑ति मो॒घमे॒तद्यत्क॒पोत॑: प॒दम॒ग्नौ कृ॒णोति॑ । यस्य॑ दू॒तः प्रहि॑त ए॒ष ए॒तत्तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उलू॑कः । वद॑ति । मो॒घम् । ए॒तत् । यत् । क॒पोतः॑ । प॒दम् । अ॒ग्नौ । कृ॒णोति॑ । यस्य॑ । दू॒तः । प्रऽहि॑तः । ए॒षः । ए॒तत् । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नमः॑ । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुलूको वदति मोघमेतद्यत्कपोत: पदमग्नौ कृणोति । यस्य दूतः प्रहित एष एतत्तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उलूकः । वदति । मोघम् । एतत् । यत् । कपोतः । पदम् । अग्नौ । कृणोति । यस्य । दूतः । प्रऽहितः । एषः । एतत् । तस्मै । यमाय । नमः । अस्तु । मृत्यवे ॥ १०.१६५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 165; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उलूकः) अव्यक्तभाषी-गुप्तभाषी (यत्) जो (वदति) बोलता है (तत्-मोघम्) वह व्यर्थ होता है (कपोतः) वेशभाषा से विचित्र दूत (यत्-अग्नौ) जो अग्नि में (पदं कृणोति) पैर रखता है, दग्ध हो जाता है, भेद से वार्ता करके (यस्य प्रहितः-एषः-दूतः) जिसका भेजा यह दूत (तस्मै यमाय) उस नियन्त्रणकर्ता (मृत्यवे) मारक के लिए हमारा (एतत्-नमः-अस्तु) यह वज्र हो-है, हम भय नहीं करें ॥४॥

    भावार्थ

    यदि परराष्ट्र का भेजा हुआ दूत पूर्वोक्त मित्रता न करे, किन्तु स्पष्ट न कहकर या मन्त्रणा न करके व्यर्थ-संग्राम अग्नि में पैर रखता है, भेद से वर्तालाप करके चला जाता है, जिसका वह दूत है, उस शासक अन्य को मारने के इच्चुक के लिए हमारे पास भी वज्र शस्त्रास्त्र बल है, भय करने की आवश्यकता नहीं अर्थात् जिस राष्ट्र के शासक में मित्रता की इच्छा नहीं, संग्राम पर तुला है, तो उसके साथ बड़े-बड़े शस्त्रास्त्रों से संग्राम करना चाहिए ॥४॥

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    विषय

    उलूक व कपोत

    पदार्थ

    [१] (अलूकः) = [उरूकः ] खूब ही धन आदि का सम्पादन करनेवाला, लक्ष्मी का वाहनभूत यह उलूक (यद् वदति) = जो बात करता है, (एतत्) = यह (मोघम्) = व्यर्थ है । हमेशा धन को अधिकाधिक प्राप्त करने की तरकीबों का ही यह कथन करता रहता है। वस्तुतः इन बातों का हमारे जीवन में कोई विशेष महत्त्व नहीं है। [२] (यत्) = जो (कपोतः) = ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति आनन्दमय प्रभु को [क] अपना पोत [boat] बनानेवाला व्यक्ति अग्नौ उस सर्वाग्रणी, सबको आगे ले चलनेवाले प्रभु में (पदं कृणोति) = स्थान को बनाता है, ब्रह्म में ही स्थित होता है। यह धन को ही सारे समय दिमाग में नहीं रखे रहता । [३] (एषः) = यह ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति (यस्य दूतः) = जिस प्रभु का सन्देशवाहक बना हुआ (प्रहित:) = हमारे समीप भेजा जाता है, (तस्मै) = उस (यमाय) = सर्वनियन्ता (मृत्यवे) = सारे संसार को अन्ततः समाप्त करनेवाले अथवा हमारी बुराइयों के लिये मृत्युभूत प्रभु के लिये (एतत् नमः अस्तु) = यह नमस्कार हो । हम प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं । प्रभु कृपा से ही हमें ब्रह्मनिष्ठ पुरुषों का सम्पर्क प्राप्त होता है और उनके द्वारा हम प्रभु के सन्देश को सुन पाते हैं। संसारी पुरुष तो धन की ही बातें करते रहते हैं। वस्तुतः सदा धन में उलझे रहनेवाले ये 'उलूक' हैं। हम इनकी बातों में न फँस जायें।

    भावार्थ

    भावार्थ - धन के वाहनभूत उलूकों की बातों को न सुनकर हम ब्रह्मनिष्ठ [कपोत] के द्वारा ब्रह्म के सन्देश को सुने ।

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    विषय

    उलूक और कपोत दो प्रकार के दूतों का वर्णन, उनके लक्षण और भेद।

    भावार्थ

    (यत्) जो (उलूकः = उरुकः) बहुत बातें बनाता है (एतत् मोघम् वदति) वह सब व्यर्थ ही बोलता है और (यत्) जब (कपोतः) उत्तम विद्वान् (अग्नौ) स्वयं तेजस्वी राजा के समीप (पदं कृणोति) अपना पद प्राप्त करता है, तब (एषः) वह (यस्य) जिसका (प्रहितः दूतः) भेजा हुआ दूत आता है (तस्मै मृत्यवे) उस मृत्यतुल्य नरसंहारक वीर शत्रुयोद्धा (यमाय) सेना-नियन्ता के प्रतिषेध के लिये (नमः अस्तु) नमस्कार वा दण्ड का प्रयोग हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कपोतो नैर्ऋतः॥ देवता—कपोतोपहतौ प्रायश्चित्तं वैश्वदेवम्॥ छन्दः—१ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उलूकः-यत्-वदति) उलूकोऽव्यक्तभाषी गुप्तभाषी “वल संवरणे” [भ्वादि०] “तत ऊक् प्रत्ययः” [उणादि० ४।४१] यद् वदति (तत्-मोघम्) तद् व्यर्थं भवतु (कपोतः-यत्-अग्नौ पदं कृणोति) वेशभाषाभ्यां विचित्रो दूतः-अग्नौ पदं धारयति दग्धो भवति भेदेन वार्तां कृत्वा (यस्य प्रहितः-एषः-दूतः) यस्य दूतः प्रेरितोऽयम् (तस्मै यमाय मृत्यवे-एतत्-नमः-अस्तु) तस्मै नियन्त्रे मारकायास्माकं वज्रः-एष भवतु ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    If the messenger is politic and speaks misleading and ambiguous language, that effort must be frustrated. If he thus risks his foot in the fire, then for his sender and controller let there be our thunderbolt for his death.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर परराष्ट्राने पाठविलेला दूत मैत्री न करता, स्पष्ट न सांगता, विचारविनिमय न करता, व्यर्थ संग्रामअग्नीत पाऊल टाकतो. भेदपूर्वक वार्तालाप करून निघून जातो. ज्या राष्ट्राचा तो दूत असतो त्याचा शासक इतरांचा नाश करण्याची इच्छा करतो तेव्हा आपल्याजवळही वज्र शस्त्रास्त्र बल असते. घाबरण्याची गरज नाही. अर्थात, ज्या राष्ट्राच्या शासकाची मैत्री करण्याची इच्छा नाही व तो युद्धखोर असेल तर त्याच्याबरोबर तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रांनी युद्ध केले पाहिजे. ॥४॥

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