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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 171 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 171/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इटो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं म॒खस्य॒ दोध॑त॒: शिरोऽव॑ त्व॒चो भ॑रः । अग॑च्छः सो॒मिनो॑ गृ॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । म॒खस्य॑ । दोध॑तः । शिरः॑ । अव॑ । त्व॒चः । भ॒रः॒ । अग॑च्छः । सो॒मिनः॑ । गृ॒हम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं मखस्य दोधत: शिरोऽव त्वचो भरः । अगच्छः सोमिनो गृहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । मखस्य । दोधतः । शिरः । अव । त्वचः । भरः । अगच्छः । सोमिनः । गृहम् ॥ १०.१७१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 171; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! तू (मखस्य दोधतः) यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कर्म को कम्पित-विचलित-विनष्ट करनेवाले का (त्वचः-शिरः-अव भरः) त्वचा से-शिर से सर को उतार दे (सोमिनः गृहम्-अगच्छः) उपासनारसवाले उपासक के हृदयघर को प्राप्त हो ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कर्म के ध्वंस करनेवाले की मूर्धा को नीचे गिरा देता है और अपने उपासक के हृदयघर को प्राप्त होता है ॥२॥

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    विषय

    यज्ञ-ध्वंसक का विनाश

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (मखस्य दोधतः) = यज्ञ को कम्पित करनेवाले पुरुष के यज्ञ- विध्वंसक के (शिरः) = सिर को (त्वचः) = त्वचा से, इस त्वचा से आवृत शरीर से (अवभर:) = अलग कर देते हैं। जो व्यक्ति यज्ञशील न बनकर औरों से किये जानेवाले यज्ञों में भी विघ्न करनेवाला होता है, प्रभु उसे विनष्ट करते हैं । [२] यज्ञादि में प्रवृत्त रहकर (सोमिनः) = सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष के (गृहं अगच्छ:) = घर में प्रभु जाते हैं । यज्ञशील पुरुष के गृह में प्रभु का वास होता है । इस प्रभु के वास से उसके जीवन में वासनाएँ नहीं पनपती और वह सोम का [= वीर्य का] रक्षण करनेवाला बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर प्रभु को अपने गृह में आमन्त्रित करें ।

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    विषय

    प्रभु से रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (त्वं) तू (मखस्य) यज्ञ के (दोधतः) कंपाने वाले दुष्ट पुरुष के (शिरः त्वचः) शिर को देह से (अव भर = हरः) नीचे कर दे। और (सोमिनः गृहम् अगच्छः) उत्तम विद्वान् के गृह को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरिटो भार्गवः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १ निचृद् गायत्री। २, ४ विराड् गायत्री। ३ पादनिचृद्गायत्री॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (मखस्य दोधतः) यज्ञस्य श्रेष्ठकर्मणो यो कम्पयति विचालयति तस्य कम्पयमानस्य (त्वचः-शिरः-अव भरः) त्वक्तः शरीरतः शिरोऽवहरसि पृथक्करोषि (सोमिनः-गृहम्-अगच्छः) उपासनारसवतः-उपासकस्य हृदयगृहं गच्छसि प्राप्नोषि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You forsake the body and mind of the dissolute scoffer of yajna, and you reach and bless the house of the devotee who performs yajna and offers you the homage of exalted devotion, joyous divine soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा यज्ञासारख्या श्रेष्ठ कर्माचा नाश करणार्‍याचे मस्तक नमवितो व आपल्या उपासकाच्या हृदयात राहतो. ।।२।।

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