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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 179/ मन्त्र 3
श्रा॒तं म॑न्य॒ ऊध॑नि श्रा॒तम॒ग्नौ सुश्रा॑तं मन्ये॒ तदृ॒तं नवी॑यः । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य द॒ध्नः पिबे॑न्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषा॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । म॒न्ये॒ । ऊध॑नि । श्रा॒तम् । अ॒ग्नौ । सुऽश्रा॑तम् । म॒न्ये॒ । तत् । ऋ॒तम् । नवी॑यः । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । द॒ध्नः । पिब॑ । इ॒न्द्र॒ । व॒ज्रि॒न् । पु॒रु॒ऽकृ॒त् । जु॒षा॒णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुश्रातं मन्ये तदृतं नवीयः । माध्यंदिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषाणः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । मन्ये । ऊधनि । श्रातम् । अग्नौ । सुऽश्रातम् । मन्ये । तत् । ऋतम् । नवीयः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । दध्नः । पिब । इन्द्र । वज्रिन् । पुरुऽकृत् । जुषाणः ॥ १०.१७९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 179; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(श्रातं मन्ये) मैं पके हुए मानता हूँ-जानता हूँ (ऊधनि श्रातम्) जो गौ के ऊधस् में दूध है, उसे पका हुआ मानता हूँ (अग्नौ सुश्रातं मन्ये) अग्नि में सुपक्व मानता हूँ (तत्-नवीयः-ऋतम्) जो अत्यन्त नवीन कृषिभूमि में होता है कोमलरूप, वह गौ के दूध के समान होता है, कठोर कृषिभूमि में कठोर अन्न पके अन्न को अग्नि में पका हुआ मानता हूँ, वह अन्न राजा के लिए देना चाहिये (वज्रिन्-इन्द्र) हे वज्रवाले राजा इन्द्र ! तू बहुत कार्य करनेवाला (जुषाणः) हमें सेवन करनेवाला और प्रेम करनेवला है (माध्यन्दिनस्य-सवनस्य) वसन्तवाले दिनों में उत्पन्न हुए (दध्नः-पिब) तू मृदु द्रवरस को नवान्न फलरस को पी ॥३॥
भावार्थ
गौ के ऊधस् में दूध भी पके अन्न के समान निकलता हुआ सेवन करने योग्य है, अग्नि में पका हुआ सुपक्व कहलाता है, वह सेवन करने योग्य है, खेती का कठोर अन्न अग्नि में पका हुआ सेवन करने योग्य है, खेती का अत्यन्त मृदु अन्न भी गोदुग्ध की भाँति सेवन करने योग्य है, वसन्त ऋतु के दिनों में फलों के रस द्रव पदार्थ खाने योग्य हैं, इस प्रकार राजा पकी हुई कठोर वस्तु और द्रव वस्तु उपहार में प्राप्त करने का अधिकारी है ॥३॥
विषय
रौहिदश्वः
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार वानप्रस्थाश्रम में अपनी पूरी तैयारी करके अब यह पुरुष संन्यस्त होता है। इसका मन सबको उत्तम निवासवाला बनाने की भावनावाला है [वसु मनो यस्य] । यह प्रवृद्ध शक्तियोंवाले इन्द्रियाश्वोंवाला बना है। सो इसका नाम 'वसुमना रौहिदश्व' हो गया है। इसे प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि - [क] तुझे (ऊधनि) = वेदवाणी रूप गौ के ज्ञानदुग्ध के आधार में (श्रातं मन्ये) = परिपक्व मानता हूँ। तूने अपने को ज्ञान विदग्ध बनाया है । [ख] (अग्नौ श्रातम्) = अग्नि में भी तू परिपक्व हुआ है । शक्ति सम्पन्नता के कारण तेरे में उत्साह [अग्नि] की भी न्यूनता नहीं है। सो मैं तुझे (सुश्रातं मन्ये) = ठीक परिपक्व हुआ हुआ समझता हूँ। (तद्) = सो तेरा जीवन (ऋतम्) = ठीक है, नियमित है [सत्य है] (नवीयः) = स्तुत्व व गतिशील है [नु स्तुतौ, नव गतौ] [२] सो (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! वज्रिन् क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथ में लिये हुए (पुरुकृत्) = खूब ही कर्म करनेवाले अथवा पालनात्मक व पूरणात्मक कर्म करनेवाले ! तू (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन करता हुआ (माध्यन्दिनस्य सवनस्य) = जीवन का माध्यन्दिन सवन 'गृहस्थाश्रम' ही है । जीवन के तीन कवन हैं- 'प्रातः सवन' ब्रह्मचर्याश्रम है । 'मध्यन्दिन सवन' गृहस्थ है और 'तृतीय सवन' वानप्रस्थ व संन्यास हैं । उस गृहस्थाश्रम के (दध्नः) = धारणात्मक कर्म को [ धत्ते इति दधि] (पिब) = अपने में व्याप्त करनेवाला बन । तू अपने ज्ञानोपदेशों से गृहस्थ का धारण करनेवाला बन । संन्यासी का मूल कर्त्तव्य यही है कि गृहस्थों को सदुपदेश देता हुआ उनको ठीक मार्ग पर चलानेवाला बने और इस प्रकार उनका धारण करे ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञान व शक्ति में परिपक्व होकर संन्यस्त हों। ज्ञान प्रचार के द्वारा संसार का धारण करनेवाले बनें । यह सूक्त जीवन को सफलता के साथ बिताने का उल्लेख करता है। यह व्यक्ति 'जय: 'विजयी बनता है। सब शत्रुओं का पराभव करके सफल जीवनवाला होता है। इसी 'जय' का अगला सूक्त है-
विषय
मध्याह्न सूर्यवत् राजा के कर-ग्रहण का प्रकार।
भावार्थ
हे (वज्रिन्) बल-वीर्य से सम्पन्न ! हे (पुरु-कृत्) बहुतों के ऐश्वर्य पैदा करने और बहुत से शत्रुओं का नाश करने हारे ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! तू (माध्यन्दिनस्य) दिन के मध्य में सूर्य के तुल्य तेजस्वी पुरुष के (दध्नः) धारण शील बल को (पिब) प्राप्त कर। (ऊधनि श्रातम्) गौ के स्तन या मातृस्तन में परिपक्व अंश दूध के समान और (अग्नौ सु-श्राते) अग्नि पर अच्छी प्रकार पकाये अन्न के समान, (नवीयः तत् ऋतम्) अति नया श्रेष्ठ, स्तुत्य वह तेज (मन्ये) मानता हूं। इति सप्तत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शिविरौशीनरः। २ प्रतर्दनः काशिराजः। ३ वसुमना रौहिदश्वः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृदनुष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(श्रातं मन्ये) पक्वं मन्ये जानामि (ऊधनि श्रातम्) गोरूधनि दुग्धाधानाङ्गे जातं दुग्धम् (अग्नौ-सुश्रातं मन्ये) अग्नौ पक्वं तु सुष्ठु पक्वं मन्ये (तत्-नवीयः-ऋतम्) तद्यत् खलु नवतरं कृषिभूमौ श्रातमन्नं तथैव मृदुजातं गोरूधसि जातं कठोरं कृषिभूमौ जातं खल्वग्नौ पक्वमिव भवति मन्ये वा तद्दातव्यं राज्ञे (वज्रिन्-इन्द्र) वज्रवन् राजन् ! त्वं बहुकार्यकृत् (जुषाणः) अस्मान् जुषाणः सेवमानः प्रीयमाणो वा (माध्यन्दिनस्य सवनस्य) वासन्तिकदिनेषु जातस्यावसरस्य (दध्नः-पिब) दधिं षष्ठी व्यत्ययेन द्वितीयायाम् दधिवन्मृदुद्रवरसं नवान्नफलरसं पिब “ऊर्ग्वाऽन्नाद्यं दधि” [तै० २।७।२।२] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I believe the milk is ripe in the cow’s udders. I know the grain is ripe in the heat of the sun. I am sure every thing is ripe and ready for the yajna, ripe and fresh truly. O lord of versatile action, wielder of the thunderbolt of justice, law and order, loving, kind and cooperative, come and taste the milky sweets of the mid day’s session of yajna. Receive, taste, protect and promote the milk of cows and harvests of the field.
मराठी (1)
भावार्थ
गायीच्या स्तनांतील दूधही पक्व अन्नाप्रमाणे असते. ते स्वीकारण्यायोग्य असते. अग्नीत शिजविलेल्या अन्नाला सुपक्व म्हटले जाते. ते ग्रहण करण्यायोग्य असते. शेतातील धान्य अग्नीत शिजविल्यावर ग्रहण करण्यायोग्य असते. शेतातील अत्यंत मृदू अन्नही गोदुग्धाप्रमाणे सेवन करण्यायोग्य असते. वसंत ऋतूत फळांचे रस द्रव पदार्थ खाण्यायोग्य असतात. या प्रकारे राजा पिकलेली वस्तू व द्रव वस्तू उपहार या नात्याने प्राप्त करण्याचा अधिकारी आहे. ॥३॥
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