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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 182 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 182/ मन्त्र 1
    ऋषिः - तपुर्मूर्धा बार्हस्पत्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॒स्पति॑र्नयतु दु॒र्गहा॑ ति॒रः पुन॑र्नेषद॒घशं॑साय॒ मन्म॑ । क्षि॒पदश॑स्ति॒मप॑ दुर्म॒तिं ह॒न्नथा॑ कर॒द्यज॑मानाय॒ शं योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पतिः॑ । न॒य॒तु॒ । दुः॒ऽगहा॑ । ति॒रः । पुनः॑ । ने॒ष॒त् । अ॒घऽशं॑साय । मन्म॑ । क्षि॒पत् । अश॑स्तिम् । अप॑ । दुः॒ऽम॒तिम् । ह॒न् । अथ॑ । क॒र॒त् । यज॑मानाय । शम् । योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिर्नयतु दुर्गहा तिरः पुनर्नेषदघशंसाय मन्म । क्षिपदशस्तिमप दुर्मतिं हन्नथा करद्यजमानाय शं योः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पतिः । नयतु । दुःऽगहा । तिरः । पुनः । नेषत् । अघऽशंसाय । मन्म । क्षिपत् । अशस्तिम् । अप । दुःऽमतिम् । हन् । अथ । करत् । यजमानाय । शम् । योः ॥ १०.१८२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 182; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 40; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में परमात्मा दुष्टजनों का तापक, साधुजनों का रक्षक है, वैसे प्रतापी जनों को भी होना चाहिए, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा (दुर्गहा) दुर्गमनीय दु:ख का हनन करनेवाला (तिरः-नयतु) उस तिरस्करणीय दुःख को दूर करे (अघशंसाय) पापप्रशंसक के लिए-हमारे अनिष्ट चिन्तक के लिए (मन्म) वधसाधन को (पुनः-नेषत्) पुनः-पुनः फेंके-ले जाये (अशस्तिम्) शस्ति अर्थात सद्भावना से रहित मनुष्य को (अपक्षिपत्) हमसे बाहर निकाल दे (दुर्मतिं हन्) दुर्बुद्धिवाले मनुष्य को नष्ट कर (अथ) और (यजमानाय) आत्मयाजी आत्मसमर्पण करनेवाले-उपासक के लिए (शंयोः) रोगों का शमन और भयों का यावन-दूरीकरण (करत्) करे ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी गहन दुःख का नष्ट करनेवाला है, अन्य के अहितचिन्तक दुष्ट मनुष्य को वह नष्ट करता है, सद्भावरहित को भी दूर फैंकता है-नष्ट करता है, अपने उपासक का कल्याण करता है ॥१॥

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    विषय

    शं योः

    पदार्थ

    [१] (दुर्गहा) = सब दुर्गमनों का विनाश करनेवाला (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु [ब्रह्मणस्पति] मेरे सब दोषों [दुर्गों ] को (तिरः नयतु) = दूर करे, तिरस्कर्त्तव्य पापों को विनष्ट करे । (पुनः) = फिर (अघसंसाय) = बुराई का शंसन करनेवाले के लिये (मन्म) = ज्ञान को नेषत् प्राप्त करायें। ज्ञान के द्वारा उनके विचारों में परिवर्तन हो और वे बुरे को बुरा ही देखने लगें । सद्बुद्धि को प्राप्त करके ये भविष्य में आपका शंसन न करें। [२] वे प्रभु (अशस्तिं क्षिपत्) = अप्रशस्त बात को हमारे से दूर करें । (दुर्मतिम्) = बुरी बुद्धि को (अप हन्) = नष्ट करें। (अथा) = और अब (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिये (शम्) = अग्नि को तथा (योः) = भयों के यावन को (करत्) = करें । पूर्वार्ध में 'दुर्गहा तिरः नमतु' से जो प्रार्थना थी, वही उत्तरार्ध में 'क्षिपत् अशस्तिं' इन शब्दों से हुई है। ' अघशंसाय मन्म नेषत् ' यह प्रार्थना 'दुर्मतिं अप अहन्' इन शब्दों में की गई है। अशान्ति के दूर होने से 'शं' [शान्ति] की प्राप्ति होती है तथा दुर्मति के दूर होने से और सुबुद्धि की प्राप्ति से [योः] भयों का यावन [ दूरीकरण] होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- बुराइयों का तिरस्करण करके व अशान्ति को परे फेंककर हम शान्त जीवनवाले हों । दुर्मति को दूर करके और सुबुद्धि को प्राप्त करके हम निर्भयता को प्राप्त हों ।

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    विषय

    बृहस्पति। महान् ब्रह्माण्ड के प्रभु से संकटमोचन की प्रार्थना। इसी प्रकार राज्यपालक प्रभु के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) महान् ब्रह्माण्ड और बड़ी २ शक्तियों का पालक प्रभु (दु:-गहा) बड़ी कठिनता से ग्रहण करने योग्य, दुर्विज्ञेय वा (दुर्ग-हा) समस्त संकटों को नाश करने वाला है। वह (तिरः नयतु) सब संकटों को दूर करे, वा वह सब (दुर्गहा तिरः नयतु) दुख से वश करने योग्य शत्रु-सैन्यों, और कष्टों को दूर करे। वा वह (तिरः) पार (नयतु) ले जावे। (पुनः) और वह (अध-शंसाय) हम पर पाप की आंशसा करने वाले, दुर्भाव वाले दुष्ट पुरुष को दूर करने वा सुधारने के लिये (मन्म) मननीय ज्ञान और तेजोयुक्त शस्त्रादि दण्ड (नेषत्) प्रयोग करे। वह (अशस्तिम् क्षिपत्) बुराई को दूर करे, वह (अशस्ति) शासन-रहित उच्छृंखलता को उखाड़ दे। (दुर्मतिं अपहन्) दुष्ट मति को परे करे। (अथ) और (यजमानाय) अपने को समर्पण करने वाले का (शंयोः) शान्ति और दुःख निवारण (करत्) करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः तपुर्मूर्धाबार्हस्पत्यः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः- १ भुरिक् त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते परमात्मा दुष्टानां तापकः साधुस्वभावानां रक्षकोऽस्ति तथैव प्रतापिजनैरपि भवितव्यमेवेत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्डस्य स्वामी (दुर्गहा) दुर्गमनीयस्य दुःखस्य हन्ता (तिरः-नयतु) तिरस्करणीयं दूरं नयतु (अघशंसाय मन्म पुनः नेषत्) पापशंसकाय वधसाधनं शस्त्रम् “मन्यतेर्वधकर्मणः” [निरु० १०।२९] पुनः पुनर्नयते (अशस्तिम्-अपक्षिपत्) शस्तिः सद्भावना तद्रहितं जनं बहिर्गमयेत् (दुर्मतिं हन्) दुर्बुद्धिं हन्तु (अथ) अथ च (यजमानाय शंयोः करत्) आत्मयाजिने रोगाणां शमनं भयानाञ्च यावनं कुर्यात् ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Brhaspati, lord of expansive universe, lead us across insufferable suffering and turn the thunderous strike of punishment to the supporter of wickedness, cast away malignity, destroy evil intention, and do good to the yajamana, free him from fear and disease and bestow good health and prosperity on him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण ब्रह्मांडाचा स्वामी असून, गहन दु:ख नष्ट करणारा आहे. अनिष्ट चिंतक दुष्ट माणसाला नष्ट करतो. सद्भावना नसणाऱ्यांना दूर फेकतो, नष्ट करतो. आपल्या उपासकाचे कल्याण करतो. ॥१॥

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