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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 184 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 184/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्वष्टा गर्भकर्त्ता विष्णुर्वा प्राजापत्यः देवता - लिङ्गोत्ताः (गर्भार्थाशीः) छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    गर्भं॑ धेहि सिनीवालि॒ गर्भं॑ धेहि सरस्वति । गर्भं॑ ते अ॒श्विनौ॑ दे॒वावा ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भ॑म् । धे॒हि॒ । सि॒नी॒वा॒लि॒ । गर्भ॑म् । धे॒हि॒ । स॒र॒स्व॒ति॒ । गर्भ॑म् । ते॒ । अ॒श्विनौ॑ । दे॒वौ । आ । ध॒त्ता॒म् । पुष्क॑रऽस्रजा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति । गर्भं ते अश्विनौ देवावा धत्तां पुष्करस्रजा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भम् । धेहि । सिनीवालि । गर्भम् । धेहि । सरस्वति । गर्भम् । ते । अश्विनौ । देवौ । आ । धत्ताम् । पुष्करऽस्रजा ॥ १०.१८४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 184; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 42; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सिनीवालि) हे पूर्व अमावास्या चतुर्दशी के अन्त में होनेवाली तिथि या प्रेमबद्ध बल देनेवाली सखी ! (गर्भं धेहि) गर्भ धारण करा, गर्भ की रक्षा कर (सरस्वति) हे उत्तर अमावास्या या प्रशस्त गृहविज्ञानयुक्त वृद्धदेवि ! (गर्भं धेहि) गर्भ को धारण करा या गर्भपोषण की विधि को बतला (ते) तेरे लिए (पुष्करस्रजा) अन्तरिक्ष में होनेवाले (अश्विनौ) सूर्यचन्द्र देव (गर्भम्-आ धत्ताम्) गर्भ को धारण कराते हैं या कराओ ॥२॥

    भावार्थ

    स्त्री में गर्भधारण कराने और बढ़ाने के निमित्त अमावास्या का पूर्वभाग और उत्तरभाग ये निमित्त बनें तथा घर में रहनेवाली बल सहायता देनेवाली सेविका तथा ज्ञानवृद्धा सास आदि ज्ञान देनेवाली होती हैं तथा सूर्य चन्द्रमा भी उनके उचित प्रकाश और चाँदनी का सेवन सहायक होते हैं ॥२॥

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    विषय

    पत्नी

    पदार्थ

    [१] हे (सिनीवालि) = प्रशस्त अन्नवाली [सिनम् अन्नं] तू (गर्भं धेहि) = गर्भ को धारण कर । माता के भोजन का सन्तान के शरीर पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है, गर्भस्थ बालक माता के द्वारा ही रस- रुधिरादि को प्राप्त करता है। माता का भोजन न केवल उस गर्भस्थ बालक के शरीर पर, अपितु उसकी मन व बुद्धि पर भी प्रभाव डालता है। [२] हे (सरस्वति) = सरस्वती की आराधना करनेवाली, ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता को उपासित करनेवाली, ज्ञान की रुचिवाली तू (गर्भं धेहि) = गर्भ को धारण कर । ज्ञान की रुचि विषय-वासनाओं से बचाती है और इस प्रकार गर्भस्थ बालक में भी उत्तम प्रवृत्तियाँ ही उत्पन्न होती हैं, वह भी ज्ञान की रुचिवाला बनता है । [३] हे पत्नि ! (अश्विनौ देवौ) = शरीरस्थ प्राण और अपान (ते गर्भं आधत्ताम्) = तेरे गर्भ का धारण करें। पत्नी की प्राणापान शक्ति ठीक होगी तो गर्भस्थ सन्तान सब प्रकार से नीरोग होगा। ये अश्विनी देव (पुष्करस्रजौ) = पुष्टिकारक रज व वीर्य को उत्पन्न करनेवाले हैं [पुष् +कर + सृज् ] इस प्रकार ये सब रोगों के चिकित्सक हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी प्रशस्त अन्नों का सेवन करे, ज्ञान की रुचिवाली हो, प्राणापान की शक्ति के वर्धन के लिये प्राणायाम को अपनाये ।

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    विषय

    गर्भधारण करने वाली स्त्री और वीर्याधानकर्त्ता पुरुष के गर्भाधान-कालिक कर्त्तव्य। सिनीवाली की निरुक्ति।

    भावार्थ

    हे (सिनीवाली) बंधन में बांधने वाली और पुरुष को वरण करने वाली ! हे सुभगे ! वरवर्णिनि ! तू (गर्भं धेहि) गर्भ को धारण कर। हे (सरस्वति) उत्तम ज्ञानवति ! तू (गर्भं धेहि) गर्भ को धारण कर। (पुष्कर-स्रजौ) पुष्टिकारक वीर्य और रज को उत्पन्न करने वाले (अश्विनौ) परस्पर व्याप्त होने वाले (देवौ) दोनों के अंग (ते गर्भं आधत्ताम्) तेरे भीतर गर्भ को धारण करावें। कामयुक्त होने से दोनों के अंग यहां ‘देव’ हैं। परस्पर अनुपात में व्याप्त होने वाले होने से ‘अश्वी’ हैं। इन नामों और विशेषणों में अन्य भी वैज्ञानिक रहस्य हैं, जिन्हें स्थानाभाव से नहीं लिखते।

    टिप्पणी

    सिनम् अन्नं भवति। सिनाति भूतानि। वालं पर्व। वृणोतेः। तस्मिन्नन्नवती। वालिनी वा। वालेने वास्याणुत्वाच्चन्द्रमाः सेवितव्यो भवतीति निरु०। ११। ३३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः स्वष्टा गर्भकतां विष्णुर्वा प्राजापत्यः॥ देवता—लिंगोक्ताः। गर्भार्थाशीः॥ छन्दः—१, २ अनुष्टुप्। ३ निचृदनुष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सिनीवालि गर्भं धेहि) हे पूर्वेऽमावास्ये चतुर्दश्यन्तिमे तिथे ! “या पूर्वाऽमावास्या सा सिनीवाली” [मै० सं० ४।३।५] यद्वा प्रेमबद्धे बलकारिणि “सिनीवालि सिनी प्रेमबद्धा बलकारिणी च तत्सम्बुद्धौ” [यजु० ३४।१० दयानन्दः] गर्भं स्थापय धारय वा (सरस्वति गर्भं धेहि) हे उत्तरे अमावास्ये ! “अमावास्या वै-सरस्वती” [मै० १।४।१५] यद्वा प्रशस्तगृहविज्ञानयुक्ते विदुषि ! स्त्रि ! “सरस्वति प्रशस्तगृहविज्ञानयुक्ते” [यजु ३९।२ दयानन्दः] त्वं गर्भं स्थापय यद्वा धारय (ते) तुभ्यम् “पुष्करम्-स्रजा-अश्विनौ देवौ गर्भम्-आधत्ताम्) पुष्करेऽन्तरिक्षे सृष्टौ “पुष्करम्-अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] सूर्याचन्द्रमसौ “अश्विनौ सूर्याचन्द्रमसावित्येके” [निरु० १२।१] गर्भमाधारयताम् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Sinivali, spirit of fecundity, sustain the foetus. O Sarasvati, universal spirit of intelligence, sustain the foetus. O fair expectant mother, may the Ashvins, sun and moon, nature’s complementary currents of creative and generative energy active in the firmament and on earth sustain and mature the foetus to fullness of its life and form.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्रीच्या गर्भात धारण करविण्या व वाढविण्यासाठी अमावास्येचा पूर्व भाग व उत्तर भाग हे निमित्त बनावे. घरात राहणारी बलवान व साह्य करणारी सेविका, तसेच ज्ञानवृद्ध सासू इत्यादी ज्ञान देणारी असते. सूर्य, चंद्र ही त्यांचा योग्य प्रकाश व चांदणे हे सहायक असतात. ॥२॥

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