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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 185/ मन्त्र 1
ऋषिः - सत्यधृतिर्वारुणिः
देवता - अदितिः (स्वस्तययनम्)
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
महि॑ त्री॒णामवो॑ऽस्तु द्यु॒क्षं मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः । दु॒रा॒धर्षं॒ वरु॑णस्य ॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । त्री॒णाम् । अवः॑ । अ॒स्तु॒ । द्यु॒क्षम् । मि॒त्रस्य॑ । अ॒र्य॒म्णः । दुः॒ऽआ॒धर्ष॑म् । वरु॑णस्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि त्रीणामवोऽस्तु द्युक्षं मित्रस्यार्यम्णः । दुराधर्षं वरुणस्य ॥
स्वर रहित पद पाठमहि । त्रीणाम् । अवः । अस्तु । द्युक्षम् । मित्रस्य । अर्यम्णः । दुःऽआधर्षम् । वरुणस्य ॥ १०.१८५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 185; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 43; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 43; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में श्वासप्रश्वास प्राण जीवनज्योति देते हैं, अध्यापक उपदेशक आचार्य ज्ञानज्योति देते हैं, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(त्रीणाम्) तीन का (महि) महान् (द्युक्षम्) दीप्तियुक्त (दुराधर्षम्) दुर्निवार्य (अवः) रक्षण (अस्तु) होवे, किन तीन का कि (मित्रस्य) प्रेरक-प्राण-श्वास-अध्यापक का (वरुणस्य) वरनेवाले अपान-प्रश्वास-उपदेशक का तथा (अर्यम्णः) हृदयस्थ प्राण या विद्यासूर्य विद्वान् का रक्षण लेना चाहिये ॥१॥
भावार्थ
प्रेरक, प्राण, श्वास; अध्यापक, वरनेवाले अपान, प्रश्वास, उपदेशक और हृदयस्थ प्राण, विद्यासूर्य विद्वान् इन तीनों का रक्षण मिले, तो मनुष्य स्वस्थ दीर्घजीवी और ऊँचा विद्वान् बन सकता है ॥१॥
विषय
'मित्र - अर्यमा - वरुण'
पदार्थ
[१] 'मित्र' शब्द का अर्थ है [त्रिमिदा स्नेहने] सबके साथ स्नेह करनेवाला । 'अर्यमा' के अन्दर देने की भावना है ' अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति' [ तै० १ । १ । २ । ४] । 'वरुण' - पाप से निवारण करता है । इन (त्रीणाम्) = तीनों का (अवः अस्तु) = रक्षण हमारे लिये हो। इनमें (मित्रस्य) = मित्र का रक्षण (महि) = हमें महान् बनानेवाला हो । मित्रता की भावना को धारण करनेवाला मन महान् [ = उदार] बनता ही है। संकुचितता व अनुदारता में स्नेह नहीं । [३] (अर्यम्णः) = अर्यमा का रक्षण हमारे लिये (द्युक्षम्) = [द्यु+क्षि निवासे] ज्योति में निवास करानेवाला हो। अर्यमा दाता है। दान की वृत्ति लोभ वृत्ति की विरोधिनी है। लोभ ही बुद्धि पर परदा डालता है। लोभ गया और बुद्धि दीप्त हुई । इस स्थिति में हमारा ज्ञान में निवास होता है । [३] (वरुणस्य) = वरुण का रक्षण हमारे लिये (दुराधर्षम्) = सब बुराइयों व शत्रुओं का धर्षण करनेवाला हो। वरुण हमें पाप से बचाता है, इस प्रकार हम अशुभवृत्तियों का शिकार होने से बचे रहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- 'मित्र' बनकर हम महान् बनें। 'अर्यमा' बनकर ज्योतिर्मय जीवनवाले हों। 'वरुण' बनकर पापों से धर्षणीय न हों।
विषय
अदिति। स्वस्त्ययन सूक्त। मित्र, अर्यमा, वरुण आदि से रक्षित तेजस्वी पुरुष का प्रखर तेज और बल। शत्रु आदि की उसके प्रति तुच्छता।
भावार्थ
(मित्रस्य) सर्व स्नेही, (अर्यम्णः) भीतरी और बाह्य शत्रुओं का नियन्त्रण करने वाले और (वरुणस्य) सबसे वरण करने योग्य, दुःखों के वारक इन (त्रीणाम्) तीनों का (द्युक्षं) अति प्रदीप्त, तेजस्वी, (अवः) रक्षण, ज्ञान और स्नेह (महि) महान् और (दुराधर्षं अस्तु) अन्यों द्वारा अपमान करने योग्य न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सत्यधृतिर्वारुणिः॥ देवता—अदितिः। स्वस्त्ययनम् ॥ छन्दः- १, ३ विराड् गायत्री। २ निचृद् गायत्री॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते श्वासप्रश्वासौ हृदयस्थप्राणश्च जीवनज्योतिर्ददति, अध्यापकोपदेशकविद्या सूर्यश्च ज्ञानज्योतिः प्रयच्छन्ति, इत्यादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(त्रीणां महि द्युक्षं दुराधर्षम्-अवः-अस्तु) त्रयाणां महद् दीप्तं दुर्निवार्यं रक्षणं भवतु, ‘केषां त्रयाणामित्युच्यते’ (मित्रस्य वरुणस्य-अर्यम्णः) प्रेरकस्य प्राणस्य श्वासस्य, अध्यापकस्य वरुणस्य वरयितुः-अपानस्य प्रश्वासस्य-उपदेशकस्य तथा-अर्यम्णः-हृदयस्थप्राणस्य विद्यासूर्यस्य च ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the great, refulgent and inviolable protection and promotion of the three, Mitra, Varuna and Aryaman bless the life of nature and humanity. (Mitra, Varuna and Aryaman are explained as prana, apana and heart energy, and as the sun of the summer, winter and spring seasons round the year.)
मराठी (1)
भावार्थ
१) प्रेरक प्राण - श्वास, २) अपान - प्रश्वास, ३) हृदयस्थ - प्राण, तसेच अध्यापक, उपदेशक व विद्यासूर्य विद्वान यांच्याकडून रक्षण झाल्यास मनुष्य स्वस्थ व दीर्घजीवी आणि उच्च विद्वान बनू शकतो. ॥१॥
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