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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 186 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 186/ मन्त्र 3
    ऋषिः - उलो वातायनः देवता - वायु: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॒दो वा॑त ते गृ॒हे॒३॒॑ऽमृत॑स्य नि॒धिर्हि॒तः । ततो॑ नो देहि जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒दः । वा॒त॒ । ते॒ । गृ॒हे । अ॒मृत॑स्य । नि॒धिः । हि॒तः । ततः॑ । नः॒ । दे॒हि॒ । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यददो वात ते गृहे३ऽमृतस्य निधिर्हितः । ततो नो देहि जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अदः । वात । ते । गृहे । अमृतस्य । निधिः । हितः । ततः । नः । देहि । जीवसे ॥ १०.१८६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 186; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 44; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वात) हे वायो ! (ते गृहे) तेरे ग्रहण अपने अन्दर प्रतिष्ठा करने पर (यत्) जो (अदः) वह (अमृतस्य निधिः) अमरण-जीवन की निधि कोष (हितः) निहित है (ततः) उसमें से (नः) हमारे (जीवसे) जीने को (देहि) धारण करा-दे, प्रदान कर ॥३॥

    भावार्थ

    वायु के अन्दर जीवन देनेवाला बड़ा भारी कोष है, उस कोष का थोड़ा भी भाग ठीक से ढंग से अन्दर धारण किया जाय, तो स्वस्थ और दीर्घजीवन मिल सकता है ॥३॥

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    विषय

    अमृत का निधि

    पदार्थ

    [१] हे (वात) = वायो ! (ते गृहे) = तेरे घर में (यत्) = जो (अदः) = वह (अमृतस्य) = अमृत का (निधिः) = कोष (हितः) = रखा है, (ततः) = उसमें से (नः) = हमें भी (देहि) = कुछ दे जिससे (जीवसे) = हम उत्कृष्ट व दीर्घजीवन बिता पायें । [२] वायु में अमृत का कोष रखा है। शुद्ध वायु में भ्रमण व निवास से वह अमृत हमें भी प्राप्त होता है। इस प्रकार यह वायु हमारे दीर्घजीवन का कारण बनती है। वस्तुतः वायु ही आयु है। वायु के अभाव में तो गति का अभाव व मृत्यु ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शुद्ध वायु का सेवन अमृत का पान है। वायु के महत्त्व को यह सूक्त अत्यन्त सुन्दरता से चित्रित कर रहा है। वायु सेवन से स्वस्थ शरीर, स्वस्थ हृदयवाला यह प्रभु का प्रिय बनता है, 'वत्स' होता है, निरन्तर उन्नति करता हुआ 'आग्नेय' [अग्नि पुत्र ] कहलाता है, आगे बढ़नेवाला । यह अग्नि ही उपासना करता हुआ कहता है कि-

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    विषय

    प्रभु अमृत का निधि।

    भावार्थ

    हे (वात) व्यापक प्रभो ! (यत्) जो (ते गृहे) तेरे ग्रहण योग्य, तेरे वश में (अमृतस्य निधिः हितः) अमृत का खज़ाना धरा है (ततः) उसमें से (नः) हमें (जीवसे धेहि) दीर्घ जीवन के लिये प्रदान कर। इति चतुश्चत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः उलो वातायनः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः- १, २ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वात) हे वायो ! (ते गृहे) तव ग्रहणे प्रतिष्ठाने “गृहा वै प्रतिष्ठा” [श० १।१।१९] (यत्-अदः-अमृतस्य निधिः-हितः) यदसौ ‘लिङ्गव्यत्ययः’ अमृतस्य-अमरणस्य जीवनस्य निधिर्निक्षेपः कोषो निहितोऽस्ति (ततः-नः-जीवसे देहि) तस्मादस्माकं जीवनाय देहीत्यर्थः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In your treasure home of immortal, inviolable energy, O breath of life energy, Vayu, there is immeasurable wealth hidden for us. Of that, from that, give us some, our share, so that we may live a full life of good health and joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वायूत जीवन देणारा मोठा कोष आहे. त्या कोषाचा थोडाही भाग योग्य रीतीने धारण केल्यास स्वस्थ व दीर्घ जीवन मिळू शकते. ॥३॥

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